रफू पर फिर रफू मत कीजिए, अच्छा नहीं लगता


सियासी गुफ्तगू मत कीजिए, अच्छा नहीं लगता…रफू पर फिर रफू मत कीजिए, अच्छा नहीं लगता…किसी शायर ने यह पंक्तियां भले ही किसी दौर में रची हो, लेकिन महाराष्ट्र के मौजूदा राजनीतिक हालात पर ये बिल्कुल फिट बैठती हैं। महाराष्ट्र में जिस तरह नियमों को धता बताकर रात के अंधेरे में सत्ता का खेल खेला गया, उससे शुचिता का दावा करने वाले बड़े-बड़ों का चेहरा बेनकाब हो गया। सत्ता के लोभ में भारतीय जनता पार्टी को जिस तरह मुंह की खानी पड़ी, उसने केवल भाजपा को ही नहीं, बल्कि सभी राजनीतिक दलों को यह सबक तो दे ही दिया कि नैतिकता को दरकिनार करोगे तो बदनामी का दाग झेलने को भी तैयार रहना होगा। जल्दबाजी का ही परिणाम है कि सरकार बनाने के बाद भी भाजपा को अपने कदम वापस लेने पड़े।
अब सवाल यह है कि आखिर इस तेजी के पीछे भाजपा नेतृत्व की रणनीति क्या थी? सियासी गलियारों में तो यही माना जा रहा है कि आनन-फानन में मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण करवाने के पीछे भाजपा की यही मंशा रही होगी कि सरकार बनने के बाद सदन में बहुमत साबित करने लायक संख्या, धनबल से जुटाया जा सकता है। यह शायद संभव भी हो जाता, लेकिन मामला शीर्ष अदालत में पहुंच जाने और वहां से 30 घंटों के अंदर सदन में बहुमत जुटाने के स्पष्ट आदेश होने के बाद भी बाजी पलट गई।
यही कारण रहा कि अंतिम समय में एनसीपी से आये अजीत पवार ने उप मुख्यमंत्री से इस्तीफा दे दिया, तो मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के पास भी त्यागपत्र देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था। बहरहाल महाराष्ट्र के इस घटनाक्रम से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह, जिन्हें राजनीति का चाणक्य और भाजपा का खेवनहार माना जाता है, की प्रतिष्ठा को भी आघात लगा है।
हालांकि यह पहली बार नहीं है जब अमित शाह का प्लान फेल साबित हुआ। इससे पहले कर्नाटक में भी ऐसा ही हुआ था। पर दोनों ही जगह प्लान तो शाह का ही था। महाराष्ट्र में सरकार बनने के साथ ही सोशल मीडिया पर चाणक्य टेंड चल पड़ था। अमित शाह की तस्वीरें के मीम्स बनने लगे कि जहां जीतते हैं, वहां तो सरकार बनाते ही हैं, लेकिन जहाँ नहीं जीतते वहां डेफिनेटली बनाते हैं। महाराष्ट्र में मंगलवार को जो कुछ भी हुआ, वह करीब डेढ़ साल पहले मई 2018 में कर्नाटक में भी हो चुका था।
इस फ्लोर टेस्ट से एक दिन पहले देवेंद्र फडणवीस ने इस्तीफा दिया तो पिछली बार बीजेपी के बीएस येदियुरप्पा ने कर्नाटक में फ्लवोर टेस्ट से ऐन पबले विधानसभा में अपने भाषण के बाद ही इस्तीफे का ऐलान कर सदन में ही त्यागपत्र दिया था।
दरअसल , 222 सीटों वाली कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में बीजेपी को 104 सीटें मिली थीं। जो बहुतम के लिए जरूरी 112 के आंकड़े से 8 कम थी। जेडीएस के 37 और कांग्रेस के 78 विधायक जीतकर आए। 3 सीटें अन्य के खाते में गई थीं। भाजपा इस उम्मीद में थी कि कांग्रेस और जेडीएस के कुछ विधायकों को अपने पाले में लाकर उनसे इस्तीफा दिलवाकर वह सरकार बनाने में कामयाब हो जाएगी। सिंगल लार्जेंस्ट पार्टी होने के नाते राज्यपाल वजुभाई वाला ने भाजपा को सरकार बनाने का न्योता दे दिया। 17 मई 2018 को येदियुरप्पा ने सीएम पद की शपथ ली। राज्यपाल ने येदियुरप्पा को बहुमत साबित करने के लिए 15 दिनों का वक्त दिया, लेकिन कांग्रेस और जेडीएस उनके इस फैसले के खिलाफ रात में ही सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई।
देर रात तक सुनवाई चली और उसके अगले दिन भी जारी रही। सुप्रीम कोर्ट ने येदियुरप्पा को उसी दिन बहुमत साबित करने का निर्देश दिया। सबकी नजरें विधानसभा पर थी, लेकिन फ्लोर टेस्ट से पहले ही येदियुरप्पा ने विधानसभा में अपने भाषण के दौरान ही इस्तीफे का ऐलान कर दिया। राज्यसभा चुनाव 2017 में गुजरात की तीन सीटों में से दो पर भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी की जीत हुई, लेकिन तीसरी सीट पर कांग्रेस के अहमद पटेल विजयी हुए। बीजेपी कुछ कांग्रेस विधायकों को अपने पाले में खींचने में कामयाब हो गई और आखिर तक सस्पेंस बना रहा कि अहमद पटेल और बीजेपी के बलवंत राजपूत में से कौन जीतेगा।
बीजेपी अपने प्लान में तकरीबन कामयाब हो चुकी थी लेकिन एक तकनीकी पेंच ने उसका बना बनाया खेल बिगाड़ दिया। दरअसल कांग्रेस के दो बागी विधायकों के चोट को लेकर विवाद खड़ा हो गया। दोनों ने अपना वोट डालने के बाद बीजेपी के एक नेता को अपना मत पत्र दिखा दिया था कि उन्होंने किसको अपना वोट दिया। इस पर कांग्रेस ने वोट की गोपनीयता भंग का आरोप लगाते हुए चुनाव आयोग का सहारा लिया था। वोटों की गिनती रुक गई। आधी रात दोनों दलों के नेता चुनाव आयोग पहुंच गए। आखिर में चुनाव आयोग ने दोनों विधायकों के वोट को खारिज कर दिया और अहमद पटेल चुनाव जीत गए।
उत्तराखंड में भी 2016 में बीजेपी को मात खानी पड़ी थी। दरअसल, सूबे में हरीश रावत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। कांग्रेस के कुल 35 विधायकों में से नौ विधायकों ने रावत के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर दिया, जिसके बाद सरकार के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग गया। बागी विधायकों को मनाने की कोशिशें होती रहीं। इस बीच राज्यपाल ने केंद्र को रिपोर्ट भेज दी कि सूबे में संवैधानिक तंत्र नाकाम हो गया है, लिहाजा राष्ट्रपति शासन लगाया जाए। इसके बाद नरेंद्र मोदी कैबिनेट ने राष्ट्रपति शासन लगाने संबंधी सिफारिश तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के पास भेजी और सूबे में राष्ट्रपति शासन लग गया। कांग्रेस ने इसे लोकतंत्र की हत्या करार दिया। पार्टी ने हाई कोर्ट में राष्ट्रपति शासन को चुनौती दी। हाईकोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को अवैध करार दिया। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
सुप्रीम कोर्ट ने हरीश रावत सरकार को विधानसभा में बहुमत साबित करने का आदेश दिया। आखिरकार हरीश रावत सरकार ने बहुमत साबित कर दिया। कुल वैध 61 मतों में से 33 विधायकों के वोट हरीश रावत सरकार के पक्ष में आए। इस तरह सूबे में हरीश रावत सरकार बहाल हो गई। इस तरह कहा जाए तो भाजपा ने अपनी पुरानी गलतियों से सीख न लेते हुए किसी कपड़े में रफू पर फिर रफू कराकर किरकिरी कराने वाली पंक्तियों हो ही चरितार्थ किया है।
महाराष्ट्र में जिस तरह नियमों को धता बताकर रात के अंधेरे में सत्ता का खेल खेला गया उससे शुचिता का दावा करने वाले बड़े-बड़ों का चेहरा बेनकाब हो गया। सत्ता के लोभ में भारतीय जनता पार्टी को जिस तरह मुंह की खानी पड़ी, उसने केवल भाजपा को ही नहीं, बल्कि सभी राजनीतिक दलों को यह सबक तो दे ही दिया कि नैतिकता को दरकिनार करोगे तो बदनामी का दाग झेलने को भी तैयार रहना होगा।