देश की एकता टूटी तो पूरी मानवता का नुकसान होगा

फैज़ान अहमद
संदेशवाहक न्यूज़ डेस्क। 1923 में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय संबोधन में दो टूक घोषणा की थी अगर कोई देवी स्वर्ग से उतरकर भी यह कहे कि वह हमें हिंदू-मुस्लिम एकता की कीमत पर 24 घंटे के भीतर स्वतंत्रता दे देगी तो मैं ऐसी स्वतंत्रता को त्यागना बेहतर समझूंगा। स्वतंत्रता मिलने में होने वाली देरी से हमें थोड़ा नुकसान तो जरूर होगा लेकिन हमारी एकता टूट गई तो इससे पूरी मानवता का नुकसान होगा।
मौलाना अबुल कलाम आजाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री, स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद, लेखक थे। यूं तो मौलाना अबुल कलाम आजाद का आज की तारीख में सबसे बड़ा परिचय यही है कि देश के स्वतंत्रता संघर्ष के नाजुक दौर में जब मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना अपना घातक द्विराष्ट्र सिद्धांत (टू नेशन थ्योरी) लेकर आगे बढ़े और मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्तान की मांग करने लगे, तो उन्होंने जिन्ना और उनके विचारों व कवायदों का जैसी दृढ़ता से विरोध किया, वैसा कांग्रेस के अन्दर या बाहर के उनके समकालीन किसी और नेता से सम्भव नहीं हुआ। वह अल्पसंख्यक समुदाय से रहा हो या बहुसंख्यक। देश के विभाजन की बात चली तो मौलाना अबुल कलाम आजाद ने मुसलमानों से बहुत ही मार्मिक अपील की।
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उन्होंने कहा कि यदि आप लोग भारत छोड़कर पाकिस्तान चल जाएंगे तो यहां की मस्जिदें वीरान हो जाएंगी। उनकी अपील का ही नतीजा रहा कि देश के मुसलमानों से पाकिस्तान जाने का विचार त्याग दिया और बंटवारे के वक्त भारत के साथ ही रहना पसंद किया। आज देश के मुस्लिम उतना पाकिस्तान विरोधी है जितना देश में रहने वाला अन्य कोई शहरी। मौलाना यह तक कहने से नहीं हिचके थे कि उनके लिए राष्ट्र की एकता स्वतंत्रता से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है और वे उसका विभाजन टालने के लिए कुछ और दिनों की गुलामी भी बर्दाश्त कर सकते हैं। 1923 में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने दो टूक घोषणा की थी, अगर कोई देवी स्वर्ग से उतरकर भी यह कहे कि वह हमें हिंदू-मुस्लिम एकता की कीमत पर 24 घंटे के भीतर स्वतंत्रता दे देगी, तो मैं ऐसी स्वतंत्रता को त्यागना बेहतर समझूंगा। स्वतंत्रता मिलने में होने वाली देरी से हमें थोड़ा नुकसान तो जरूर होगा, लेकिन हमारी एकता टूट गई तो इससे पूरी मानवता का नुकसान होगा। इतिहास गवाह है कि अंतत: मौलाना के नजरिये को दरकिनार कर, और तो और, उनकी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी विभाजन के लिए राजी हो गई और मौलाना हिन्दू-मुस्लिम एकता की बिना पर उसे रोकने के अपने मकसद में नाकाम हो गये। फिर भी
उन्होंने अपनी एक ऐसे राष्ट्र की परिकल्पना से कोई समझौता नहीं किया। जहां धर्म, जाति, सम्प्रदाय और लिंग किसी के अधिकारों में आड़े न आने पाए। 15 अप्रैल 1946 को उन्होंने कहा कि मुस्लिम लीग की अलग पाकिस्तान की मांग के दुष्परिणाम न सिर्फ भारत बल्कि खुद मुसलमानों को भी झेलने पड़ेंगे क्योंकि वह उनके लिए ज्यादा परेशानियां पैदा करेगा। उनकी इस भविष्यवाणी को तो हम 1971 में हुए भारत पाक युद्ध के दौर में ही सच हुई देख चुके हैं कि नफरत की नींव पर तैयार हो रहा नया पाकिस्तान तभी तक जिंदा रहेगा, जब तक नफरत जिंदा रहेगी। बंटवारे की आग ठंडी पडऩे लगेगी तो यह नया देश भी अलग-अलग टुकड़ों में बंटने लगेगा। 1971 में पाकिस्तान का टूटना और बंग्लादेश का अलग नया राष्ट्र बनना उनके इसी कथन की प्रामाणिकता की नजीर था। प्रसंगवश, मौलाना ने अपने समय के उन इस्लाम धर्मानुयायी नेताओं की कड़ी लानत-मलामत से भी परहेज नहीं किया, जो उनकी निगाह में देश से ज्यादा अपने सम्प्रदाय के हितों को समर्पित हो गये थे। इन सम्प्रदायवादी नेताओं के विपरीत उन्होंने 1905 में हुए बंग-भंग (बंगाल के विभाजन) का भी अपने तईं भरपूर विरोध किया। 1942 में कांग्रेस ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन आरंभ किया तो मौलाना ही उसके अध्यक्ष थे। इसकी ‘सजा के रूप में उन्होंने अपनी जिन्दगी के तीन साल जेल में बिताए।
इससे पहले 1916 में भी अंग्रेज हुक्मरानों ने मौलाना की गतिविधियों से चिढ़कर उनको बंगाल बदर कर रांची की जेल में नजरबंद कर दिया था। स्वतंत्रता के बाद देश के पहले शिक्षामंत्री के तौर पर मौलाना ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) समेत शिक्षा व संस्कृति को विकसित करने वाले कई उत्कृष्ट संस्थानों की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनमें संगीत, नाटक, साहित्य और ललित कला जैसी अकादमियां भी शामिल हैं। इतना ही नहीं 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अतिरिक्त उन्होंने बेटियों की शिक्षा, कृषि शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षणों की पृष्ठभूमि भी तैयार की। उन्हें ‘इंडिया विन्स फ्रीडम जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक के लेखन के लिए भी याद किया जाता है जिसमें उन्होंने स्वतंत्रता और सम्प्रभुता को लेकर अपनी अवधारणाओं का बेझिझक वर्णन किया है। उन्हीं के जन्मदिन पर हर साल ग्यारह नवंबर को भारत में राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में मनाया जाता है। सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंडरी एजुकेशन ने मौलाना अबुल कलाम आजाद के शिक्षा के क्षेत्र में किए गए योगदान के लिए उनके जन्मदिन पर साल 2015 में नेशनल एजुकेशन डे मनाने का फैसला किया था। भारत की आजादी के बाद मौलाना अबुल कलाम भारत के पहले शिक्षा मंत्री बने और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना की थी। मौलाना आजाद 35 साल की उम्र में इंडियन नेशनल कांग्रेस के सबसे नौजवान अध्यक्ष बने थे। मौलाना अबुल कलाम आजाद को 1992 में भारत रत्न से मरणोपरांत सम्मानित किया गया था। उन्होंने हमेशा सादगी का जीवन पसंद किया था। आपको जानकर हैरानी होगी जब उनका निधन हुआ था, उस दौरान भी उनके पास कोई संपत्ति नहीं थी और न ही कोई बैंक खाता था। उनकी निजी अलमारी में कुछ सूती अचकन, एक दर्जन खादी के कुर्ते पायजामें, दो जोड़ी सैंडल, एक पुराना ड्रैसिंग गाउन और एक उपयोग किया हुआ ब्रुश मिला किंतु वहां अनेक दुर्लभ पुस्तकें थी जो अब राष्ट्र की सम्पत्ति है। मौलाना आजाद महात्मा गांधी के सिद्धांतों का समर्थन करते थे। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए कार्य किया और वो अलग मुस्लिम राष्ट्र (पाकिस्तान) के सिद्धांत का विरोध करने वाले मुस्लिम नेताओ में से थे।
स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री रहे मौलाना आजाद ने शिक्षा के क्षेत्र में कई अतुल्य कार्य किए। भारत के पहले शिक्षा मंत्री बनने पर उन्होंने नि:शुल्क शिक्षा, उच्च शिक्षा संस्थानों की स्थापना में अत्यधिक के साथ कार्य किया। मौलाना आजाद को ही भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना की थी। इसी के साथ उन्होंने शिक्षा और संस्कृति को विकसित करने के लिए उत्कृष्ट संस्थानों की स्थापना की थी। उन्होंने संगीत नाटक अकादमी (1953), साहित्य अकादमी (1954) और ललित कला अकादमी (1954) की स्थापना की थी। शुरुआती पारम्परिक इस्लामी शिक्षा के अलावा उन्होंने स्वाध्याय पूर्वक उर्दू, फारसी, हिन्दी, अरबी व अंग्रेजी भाषाओं और इतिहास, गणित व भारतीय व पाश्चात्य दर्शनों का गहन अध्ययन किया। शिक्षा सम्बन्धी विचारों में वे आधुनिक शिक्षावादी सर सैयद अहमद खां के निकट बताये जाते हैं। मौलाना 11 नवंबर, 1888 को सऊदी अरब के मक्का शहर में उनका एक ऐसे भारतीय परिवार में जन्म हुआ जो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के विफल होने के बाद कोलकाता से वहां चला गया था। तब उनका बड़ा लम्बा-सा नाम रखा गया था। सैयद अबुलकलाम गुलाम मुहियुद्दीन अहमद बिन खैरुद्दीन अलहुसैनी आजाद, लेकिन बाद में वे मौलाना अबुल कलाम आजाद के नाम से ही जाने और पहचाने गये।
मौलाना के शुरुआती जीवन पर जाएं तो 11 नवंबर, 1888 को सऊदी अरब के मक्का शहर में उनका एक ऐसे भारतीय परिवार में जन्म हुआ, जो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के विफल होने के बाद कोलकाता से वहां चला गया था. तब उनका बड़ा लम्बा-सा नाम रखा गया था। सैयद अबुलकलाम गुलाम मुहियुद्दीन अहमद बिन खैरुद्दीन अलहुसैनी आजाद, लेकिन बाद में वे मौलाना अबुल कलाम आजाद के नाम से ही जाने और पहचाने गये। उनके जन्म के कुछ ही वर्षों बाद ही उनका परिवार फिर से कोलकाता लौट आया था। मौलाना अभी 11 साल के ही थे कि उनकी मां नहीं रहीं और उसके दो साल बाद ही वे शादी करके निकाह के बंधन में बंध गये। शुरुआती पारम्परिक इस्लामी शिक्षा के अलावा उन्होंने स्वाध्यायपूर्वक उर्दू, फारसी, हिन्दी, अरबी व अंग्रेजी भाषाओं और इतिहास, गणित व भारतीय व पाश्चात्य दर्शनों का गहन अध्ययन किया. शिक्षा सम्बन्धी विचारों में वे आधुनिक शिक्षावादी सर सैयद अहमद खां के निकट बताये जाते हैं।