नागरिकों के प्रति संवेदनहीन सरकारें: सैय्यद मन्ज़ूम आक़िब


संदेशवाहक न्यूज डेस्क। आजकल सरकार में बैठे लोगों का रवैया देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारें केवल किसी मशीन की तरह काम कर रही हैं, जिसमें संवेदना तो है लेकिन मानवता के प्रति नहीं है। सरकार की पॉलिसी पिछले 15 वर्षो ऐसी बनती जा रही है जिसमें गरीब, कमज़ोर, असहाय, नागरिकों के लिए आसानियां कम और परेशानियां अधिक हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत सरकार ने कई ऐसी नीतियां विकसित कर दी हैं, जिससे कि नागरिकों को बहुत कुछ मिल भी रहा है, लेकिन उस बहुत कुछ को पाने के लिए जनता को जो तकलीफ पहुंचती है, यदि कोई मानवीय संवेदना के साथ उन तकलीफों और परेशानियों का आंकलन किया जाये तो पता चलेगा कि सरकार जो बहुत कुछ देने का दावा करती है वह बहुत कुछ इन परेशानियों की तुलना में बहुत कम होता है। पिछले सालों में कई ऐसी घटनाएं सामने आई हैं जो इसका खुला उदाहरण हैं।
‘एक लड़की ने महज़ इस कारण भूख से दम तोड़ दिया कि उसकी माता का राशन कार्ड, आधार कार्ड से बायोमेट्रिक (लिंक) नहीं हो सका था। इसी प्रकार बायोमेट्रिक नेटवर्क पाने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों के राशन दुकानदारों (कोटेदारों) और कार्डधारकों को कितना परेशान होना पड़ता है, इसको समझने के लिए वह तस्वीर काफी थी जिसमें लोग पेड़ पर चढ़कर नेटवर्क का इंतजार कर रहे थे।
संप्रग सरकार ने आधार कार्ड लागू कर दिया और आधार कार्ड बनवाने में जनता ने कितने पापड़ बेले और आधार कार्ड विहीन लोग सरकारी योजनाओं से वंचित कर दिये गये। उन योजनाओं से वंचित लोगों का नाम लाभार्थियों की सूची में सम्मिलित नहीं हो सका और सूची को अपडेट करवाने, नया नाम सम्मिलित करवाने, लाभार्थी बनने के लिए गरीब ग्रामीणों को जो समस्याएं झेलनी पड़ रही हैं, उसका एहसास वही कर सकता है, जिसका सीधा सम्पर्क ऐसे गरीब और असहाय लोगों से है।
चूंकि हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहां पर जनप्रतिनिधि वंशानुगत होने लगा है। अतः ऐसा जनप्रतिनिधि जो सीधा जनता से संवाद करके जनता के बीच से होकर सदन पहुंचता है, वह तो जन समस्याओं के प्रति संवेदना रखता है, लेकिन जो प्रतिनिधि पिता की बनाई राजनीतिक ज़मीन पर उतरता है या ऐसा जनप्रतिनिधि जो पर्टियों को पैसा देकर चुनाव में टिकट खरीदता है, वह सियासत को कारेबार की निगाह से देखता है। जनता सेवा की निगाह से कभी देख नहीं सकता और गरीब व निरीह लोगों की समस्याओं के प्रति वह कभी गंभीर हो ही नहीं सकता।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में फीस बढ़ोत्तरी के विरूद्ध जब वहां छात्र और छात्राओं ने विरोध प्रदर्शन किया तो लोगों ने जनता को यह कहकर समझाना चाहा कि टैक्स के पैसों से चलने वाले विश्वविद्यालय को इतना सस्ता कैसे किया जा सकता है। जबकि इसी देश में इसी टैक्स का पैसा किन-किन जगहों पर व्यर्थ किया जा रहा है उसकी अगर फेहरिस्त बनाई जाये तो बहुत लम्बी हो जाएगी।
आप यदि गरीबों की समस्याओं को दृष्टि में रखे बिना ही सरकार की नीतियों को बनायेंगे तो याद रखें कि प्रजातंत्र की परिभाषा को आप बदलने की कोशिश कर रहे हैं। भारत में लागू होने वाली नोटबंदी नीति ने यहां के गरीबों, निर्धनों, ग्रामीणों को कितनी पीड़ा पहुंचाई अगर इसका आकलन संवेदना और आत्ममंथन, आत्मचिन्तन के साथ कर लिया जाये तो बहुत हद तक भारतीय नागरिकों की वास्तविक समस्याओं को हल करने एवं नीति निर्धारण करने में मदद मिल सकती है तथा भारतीय प्रजातन्त्र चरितार्थ हो सकता है।
प्रायः हमारे देश के राजनीतिक केवल अपने प्रतिद्वन्दी को नीचा करने के लिए ही चुनावी मुद्दों को उठाते हैं और उनकी भाषाएं सदन में कुछ होती हैं और सड़क पर कुछ होती हैं। राजनीति में यह कोई नई बात नहीं है लेकिन आम जनमानस के अधिकारों का हनन करना उनकी बड़ी-बड़ी समस्याओं को नज़रअन्दाज़ करना उनका संवैधानिक शोषण करना, देश में व्याप्त समस्याओं के प्रति केवल नागरिकों को जिम्मेदार ठहराना उनके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य की उपयुक्त व्यवस्था न करके उनको प्राइवेट स्कूलों एवं अस्पतालों में जाने के लिए मजबूर करना बहुत बड़ी संवेदनहीनता है, जो किसी भी समय देश के लिए घातक हो सकती है। क्योंकि किसी को भी बहुत दिन तक धोखा नहीं दिया जा सकता। अतः लोकतंत्र के सभी स्तम्भों को इसके प्रति संवेदनशील बनना चाहिए, जिससे भारत एक स्वस्थ एवं सुदृढ़ लोकतंत्र बन सके।
सैय्यद मन्ज़ूम आक़िब
अहमदनगर कॉलोनी, इंटीग्रल यूनिवर्सिटी, लखनऊ
9839631674