बेहद चिंतनीय

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संदेशवाहक न्यूज़ डेस्क। सुप्रीम कोर्ट ने बाल यौन उत्पीड़न की घटनाओं पर जिस तरह से कड़ाई दिखाई है, उससे स्पष्ट होता है कि वह इस तरह के जघन्य अपराधों पर खामोश नहीं रह सकता। सर्वोच्च न्यायालय के कड़े रुख का पता इसी से पता चलता है कि उसने अपनी तरफ से एक न्यायमित्र नियुक्त करके बाल दुष्कर्म संबंधी आंकड़ों का अध्ययन करने और अदालत को निर्देशों संबंधी उचित सुझाव देने संबंधी आदेश भी दिया है। अदालत का यह कदम सराहनीय है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के आंकड़ों से यह भी सामने आया है कि बाल यौन शोषण के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है। रिपोर्ट से पता चलता है कि वर्ष 2016 में ही बच्चों के साथ घटी 106958 घटनाओं में 36022 मामले पाक्सो एक्ट के तहत दर्ज किये गये। यौन शोषण की शिकार 93 फीसदी बच्चियां ग्रामीण इलाकों की हैं। 20 प्रतिशत बच्चे गंभीर यौन उत्पीड़न के शिकार होते हैं। सात फीसदी बच्चे ऐसे होते हैं जो अपने साथ हुए कुकर्म की शिकायत करते ही नहीं। इतना ही नहीं, देश में बाल यौन शोषण के मामलों में 34.4 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी है। यह स्थिति देश और प्रदेश दोनों को शर्मिंदा करने वाली है। इस तरह की घटनाएं पूरे देश के लिए कलंक समान तो हैं ही, हमारी भावी पीढ़ी के लिए एक खतरनाक दिशा को भी रेखांकित करती हैं।

केंद्र सरकार ने पूरे देश को हिला देने वाले निर्भया कांड के बाद इस दिशा में गंभीरता से प्रयास करते हुए कड़े कानून तक बनाये। हाल ही में केंद्रीय कैबिनेट ने 10 साल से कम उम्र वाले बच्चों के यौन उत्पीड़न को रोकने की दिशा में कदम उठाते हुए मृत्यु दंड जैसा कानून बनाने का फैसला भी कर लिया है। अब तक उम्र कैद का प्रावधान था। पर, सवाल यह है कि सिर्फ कानून बना देने भर से ऐसे अपराध क्या रोके जा सकेंगे? क्या ऐसा कुकर्म करने वालों को तब तक कोई भय होगा, जब तक अपराधी को उसके किये की सजा जल्द से जल्द से नहीं मिलती? जब तक पीड़ित को त्वरित न्याय नहीं मिलता, तब तक किसी कानून के कोई मायने हैं क्या? कुछ राज्यों में ऐसे अपराधियों को मृत्यु दंड की सजा हुई भी, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात इसलिए कहा जा सकता है कि सजा सुनाई गई लेकिन कानूनी दांव-पेंचों के चलते ही सजा पर अमल नहीं हो सका। ऐसे में अपराधियों को क्या भय होगा? सरकार को यह भी देखना होगा कि उसके बनाये कानूनों का पालन त्वरित गति से हो रहा है अथवा नहीं, तभी पूर्ण न्याय की अवधारणा को धरातल पर उतारा जा सकता है।

इस दिशा में शासन-प्रशासन को तो सजग रहना ही होगा, साथ ही समाज में भी जागरूकता फैलानी होगी। इसके अलावा बेटियों को भी शिक्षित करने के साथ ही उन्हें मजबूत बनाने के उपाय भी करने होंगे। किसी समाज में जब मानसिक विकृतियां चरम पर पहुंच जाती हैं तो यह इस बात का परिचायक होता है कि कहीं न कहीं हमारी शिक्षा और संस्कारों में भी कोई खोट रह गया है। अतः इस दिशा में शिक्षा संस्थानों, स्वयं सेवी संस्थाओं, समाज के विभिन्न संगठनों और सभी वर्गों को आगे आकर इस कोढ़ को दूर करने के उपाय करने होंगे, तभी इस नासूर को मिटाने में सफलता मिल सकती है। अब भी वक्त है, हम नहीं सचेते तो आने पीढ़ी को इस तरह के अपराधों के दंश से मुक्ति मिलना संभव नहीं होगा। यह हमारे देश और समाज, दोनों के लिए घातक होगा।

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