जब जमीर ही नहीं तो प्रोनोट की राजनीति के क्या मायने

प्रद्युम्न तिवारी, पॉलिटिकल एडिटर
संदेशवाहक न्यूज़ डेस्क। महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना ने गठजोड़ करके चुनाव लड़ा। सत्ता कायम करने लायक विधायक भी जिता लिए। इसके बावजूद वहां सरकार का गठन अभी अधर में लटका है। देश के इतिहास में शायद यह पहला मौका है जब चुनाव से पहले हुए गठजोड़ के बाद दो राजनीतिक दल पर्याप्त संख्या बल होने के बावजूद सरकार नहीं बना पा रहे हैं। महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना ने समझौता न होने पर अलग-अलग चुनाव लड़ा था। बाद में भाजपा ने ज्यादा सीटें जीतकर अन्य दलों के सहयोग से सरकार बना ली थी। सरकार सफलतापूर्वक पांच साल चली भी। पर, इस बार चुनाव पूर्व गठजोड़ तथा पर्याप्त संख्या में सीटें जीतने के बाद भी सरकार न बनने का सबसे कारण अविश्वास की खाईं है।
कहा जाता है कि राजनीति में न तो कोई स्थाई दोस्त होता है और न ही दुश्मन। यह कहावत इस समय महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना के नेताओं पर खरी उतर रही है। शिवसेना नेता कह रहे हैं कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 50-50 के फार्मूले को स्वीकार किया था। इसी के बाद दोनों दलों में गठजोड़ हुआ था। शिवसेना नेता ढाई-ढाई साल का मुख्यमंत्री चाहते हैं। पहले भाजपा और फिर शिवसेना का नेता मुख्यमंत्री बने। वे इस बात पर अड़ गए हैं कि भाजपा की ओर से लिखित आश्वासन दिया जाए कि ऐसा ही होगा।
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दरअसल यह विश्वास का संकट है जो राजनेताओं ने खुद खड़ा किया है। आयाराम-गयाराम की राजनीति ज्यों-ज्यों परवान चढ़ती गई, वैसे-वैसे यह संकट गहराता गया। आज स्थिति यह आ गई है कि प्रोनोट (रुक्का) की राजनीति शुरू हो गई है। पर, क्या समस्या का समाधान इससे संभव है? चाहे प्रोनोट ले लें अथवा कसम खिला लें, जब तक जमीर नहीं जगेगा तब तक कुछ नहीं होने वाला। महाराष्ट्र में जो नाटक चल रहा है, उसे पूरा देश देख रहा है। इसी के साथ उधड़ रही हैं भारतीय राजनीति की मैली पर्तें।
शिवसेना के नेता शायद उत्तर प्रदेश के वर्ष 1996 में भाजपा और बहुजन समाज पार्टी के बीच छह-छह माह के कार्यकाल वाले मुख्यमंत्री का हश्र भूल गए हैं। उस समय उत्तर प्रदेश में पहले मायावती ने मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली और छह माह तक सरकार चलाई भी। भाजपा की ओर से सरकार को संकट डालने वाला कोई काम ऐसा नहीं हुआ जिससे सरकार संकट में पड़े। पर, इस दौरान भी तमाम शंकाएं और चर्चाएं जन्म लेती रहीं। छह माह बाद भाजपा की ओर से कल्याण सिंह ने मुख्यमंत्री पद संभाला लेकिन कुछ दिन बाद ही सरकार पर संकट के बादल मंडराने लगे। भाजपा और बसपा के बीच कड़वाहट इतनी बढ़ गई कि बसपा ने समर्थन वापसी की घोषणा की तो भाजपा ने बहुमत का दावा ठोंक दिया। विधानसभा में बहुमत साबित करने की नौबत आई तो सदन के अंदर ही पाला बदल हुआ और बसपा खुद टूट गई। शेष कार्यकाल में सत्ता भाजपा के ही हाथ रही।
यह संदर्भ इसलिए दिया गया कि जब विश्वास का संकट खड़ा होता है तो प्रोनोट अथवा रुक्का काम नहीं आते। शिवसेना कहा रही है कि उसके विकल्प और हैं लेकिन वह सत्ता की भूखी नहीं है। उसका इशारा कांग्रेस तथा एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने की ओर है। उधर भाजपा भी आश्वस्त है कि उसी के मुख्यमंत्री होंगे तथा शिवसेना अंततः अपने विधायकों का दबाव मान जाएगी। शिवसेना हो अथवा भाजपा, दोनों के लिए दूसरे के साथ मिलकर सरकार बनाना आसान नहीं होगा और यदि बेनेल गठजोड़ से सरकार बनती भी है तो वह ज्यादा दिनों की मेहमान नहीं होगी।