संपादक की कलम से: वैश्विक संस्थाओं में सुधार के सवाल

Sandesh Wahak Digital Desk : दिल्ली में आयोजित जी-20 शिखर सम्मेलन के समापन मौके पर वैश्विक संस्थाओं में सुधार का सवाल भी उठा। पीएम मोदी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की पुरानी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि यदि वैश्विक संस्थाएं आज की व्यवस्था और जरूरतों के मुताबिक खुद को नहीं बदलेंगी तो उनकी प्रासंगिकता खत्म हो जाएगी।

सवाल यह है कि :- 

  1. संयुक्त राष्ट्र और अन्य वैश्विक संस्थाएं बदलाव क्यों नहीं कर रही हैं?
  2. क्या इन संस्थाओं को दुनिया के कुछ ताकतवर देशों ने हाईजैक कर लिया है?
  3. संख्या बल के बावजूद ये संस्थाएं अविकसित और विकासशील देशों की आवाज को बुलंद क्यों नहीं कर पा रही हैं?
  4. क्या ये संस्थाएं वाकई में अप्रासंगिक हो चुकी है?
  5. क्या जी-20 सम्मेलन में उठाए गए बदलाव के सवाल पर इन संस्थाओं पर कब्जा जमाए बैठे शक्तिशाली देश विचार करेंगे?
  6. क्या निकट भविष्य में वैश्विक स्तर पर कोई बदलाव होगा?

पिछले कई वर्षों से भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में बदलाव की मांग कर रहा है। इसके पीछे उसकी मंशा न केवल सुरक्षा परिषद में खुद को स्थायी सदस्य के तौर पर शामिल कराना बल्कि चीन जैसे विस्तारवादी देश की दादागिरी को भी समाप्त करना है। भारत का मानना है कि वीटो पावर के कारण कई बार बेहद संवेदनशील मुद्दे पर आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद कड़े फैसले नहीं ले पाती है। यही हाल विश्व स्वास्थ्य संगठन और विश्व बैंक जैसी संस्थाओं के है।

विकासशील और अविकसित देशों का शोषण जारी

ये संगठन भी अमेरिका और आर्थिक रूप से समृद्ध देशों के हितों की पूर्ति का साधन बन चुके हैं। इसका परिणाम यह है कि विकासशील और अविकसित देशों का शोषण जारी है। जहां तक संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का सवाल है तो यह वीटो पावर वाले पांच देशों की दादागिरी के कारण अपनी साख खोता जा रहा है। मसलन, रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर संयुक्त राष्ट्र एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सका जबकि अन्य छोटे देशों में यह अमेरिका, चीन और रूस के इशारे पर कड़े प्रतिबंध लगाने से लेकर कार्रवाई करने तक में आगे रहता है। यही बात भारत को हजम नहीं हो रही है।

भारत का मानना है कि वैश्विक संस्थाएं तभी फल-फूल सकती हैं जब वहां की व्यवस्थाएं लोकतांत्रिक तरीके से संचालित हों। अन्य देशों की बातें भी सुनी जाएं और निर्णयों को वीटो पावर को गिरवी न बनाया जाए। यही वजह है कि आज वैश्विक संस्थाओं की जगह क्षेत्रीय संगठन उभर कर सामने आ रहे हैं। आसियान, दक्षेस, जैसे संगठन इसका प्रमाण है।

ऐसे में यदि पीएम मोदी वैश्विक संस्थाओं की कार्यप्रणाली पर सवाल उठा रहे है तो यह बिल्कुल वाजिब और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित है। वैश्विक संस्थाओं और इसके कर्णधारों को इस पर गंभीर चिंतन करना चाहिए अन्यथा ये संस्थाएं हाशिए पर चली जाएंगी और छोटे देश भी इसकी कार्रवाई को धता बताने में कोई गुरेज नहीं करेंगे। इससे ऐसी संस्थाएं निष्प्रभावी हो जाएंगी।

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