मिशन 2024 : वोट बैंक की चाहत में दो नावों पर सवार अखिलेश यादव

पीडीए की दे रहे दुहाई, सॉफ्ट हिंदुत्व का भी नहीं छूट रहा मोह, स्वामी प्रसाद भी बने गले की हड्डी

Sandesh Wahak Digital Desk : मिशन 2024 को लेकर जहां भाजपा लखनऊ से दिल्ली तक बैठकों के जरिये सियासी रणनीति की दशा और दिशा तय करने में जुटी है। वहीं कांग्रेस ने महासचिव प्रियंका गांधी को यूपी प्रभारी के पद से हटाकर अविनाश पांडेय को जिम्मेदारी सौंपकर खुद को सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ भी मोड़ा है। बावजूद इसके सपा की चुनावी तैयारियां परवान चढ़ते नजर नहीं आ रही हैं।

पार्टी की कमान हाथ में लेने के बाद से ऐसा लगता है कि अखिलेश ने स्थाई रूप से विपक्ष का नेता बनने का मानो प्रण ही ले लिया है। तभी अखिलेश खुद दुविधा में हैं, वो सॉफ्ट हिंदुत्व और अपने पिता की तरह अल्पसंख्यक समर्थक की इमेज में से किसी एक को चुन नहीं पा रहे हैं।

लोकसभा चुनाव के लिए अच्छे नहीं हैं संकेत

दरअसल 2014 के बाद से सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव से चुनावी सफलता मानो रूठ सी गई है। पिता मुलायम सिंह यादव के रहते जो सफलता उन्होंने अर्जित की, सिर्फ वही खाते में आज तक है। एक तरफ अखिलेश यादव लोकसभा चुनाव के लिए पीडीए की दुहाई दे रहे हैं, वहीं स्वामी प्रसाद मौर्य के चलते सवर्ण वोटबैंक खिसकने का डर भी सता रहा है।

हाल ही में सपा के ब्राह्मण सम्मलेन के बाद पूर्व विधायक पवन पांडेय समेत कई नेताओं ने मौर्य के हिन्दू धर्म धोखा वाले बयानों पर जमकर भड़ास निकाली। डिम्पल यादव ने भी इसे स्वामी की निजी राय बताया ताकि पार्टी को सवर्ण वोटों का नुकसान न हो। इसी सम्मलेन में खुद अखिलेश स्वामी के बयानों के खिलाफ भी नजर आये। लेकिन खुलकर विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए।

अखिलेश दो नावों पर सवार होकर खेल रहे

दरअसल मुलायम के समय में समाजवादी पार्टी को यादव और मुस्लिम वोटों के साथ राजपूतों और ब्राह्मणों का वोट भी मिलता रहा है। सॉफ्ट हिंदुत्व को दिखाते हुए अखिलेश यादव यूपी से लेकर एमपी तक मंदिरों के चक्कर लगाते अक्सर नजर आये हैं। वहीं स्वामी प्रसाद मौर्य लक्ष्मी पूजा को नाटक करार देते हैं।

अखिलेश सभी देवताओं को पूजते नजर आते हैं, ऐसे में समझना मुश्किल हो जाता है कि अखिलेश दो नावों पर सवार होकर खेल रहे हैं या भ्रम की स्थिति में हैं कि किस नाव से पैर उतारा जाए। फिलहाल दोनों ही स्थिति सपा के लिए मिशन 2024 को देखते हुए ठीक नहीं है। इसको देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि दुविधा में दोनों गए मतलब माया मिली न राम।

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