सम्पादक की कलम से : छोटे दलों की बढ़ती अहमियत के अर्थ

Sandesh Wahak Digital Desk : लोकसभा चुनाव के पहले एक बार फिर विपक्ष और सत्ता पक्ष मुकाबले की तैयारी में जुट गया है। कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियां अपना-अपना गठबंधन मजबूत कर रही हैं। भाजपा के खिलाफ विपक्ष के 26 दलों ने मिलकर बेंगलुरु में नए गठबंधन का ऐलान किया है और इसका नाम इंडिया रखा गया है यानी कांग्रेस के नेतृत्व में बना यूपीए फिलहाल हाशिए में चला गया है।

वहीं दिल्ली में भाजपा के नेतृत्व में राजग की बैठक हुई। इन दोनों ही बैठकों में एक बात साफ दिखी कि कांग्रेस हो या भाजपा दोनों ही छोटे दलों को अपने पाले में करने में जुटी हैं। दोनों को उम्मीद है कि ये दल ही उनको दिल्ली की सत्ता तक पहुंचाने में सहायक होंगे।

सवाल यह है कि :-

  • छोटे और क्षेत्रीय दलों की अहमियत क्यों बढ़ गई है?
  • कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी इन दलों के सामने आत्मसमर्पण की मुद्रा में क्यों नजर आ रही है?
  • जाति आधारित राजनीति करने वाली पार्टियां बड़े दलों के लिए आवश्यक क्यों हैं?
  • क्या सत्ता प्राप्ति के बाद छोटे दल, बड़े दलों को ब्लैकमेल नहीं करेंगे?
  • क्या ऐसी व्यवस्था लोकतंत्र के भविष्य के लिए उचित कही जा सकती है?

लोकसभा चुनाव के पहले सियासी पारा चढऩे लगा है। पिछले दस सालों से केंद्र की सत्ता से दूर कांग्रेस दिल्ली पर काबिज होने की हर मुमकिन कोशिश कर रही है। कभी भाजपा के सहयोगी रहे नीतीश कुमार विपक्षी एकता के नाम पर छोटे-बड़े दलों को एक मंच पर लाने में जुटे। नीतीश ने इसके लिए मेहनत भी की। विपक्षी एकता के नाम पर पहली बैठक पटना और दूसरी बेंगलुरु में हो चुकी है। बेंगलुरु में हुई बैठक में दो चीजें साफ दिखाई पड़ी।

कांग्रेस के हाथ में पहुंची विपक्ष की कमान

पहली बैठक में जहां नीतीश के हाथ में कमान थी वहीं दूसरी में यह खिसक कर कांग्रेस के हाथ पहुंच गयी। इसमें कुल 26 छोटे दल शामिल हुए। इसी तरह राजग की बैठक में भी छोटे दलों का जमावड़ा लगा रहा। कांग्रेस व भाजपा दोनों ही छोटे दलों को साधने में जुटी हैं। इसकी बड़ी वजह इनका अपने-अपने क्षेत्रों में वोट बैंक का होना है। अधिकांश छोटे दल जाति आधारित हैं। इन दलों का अपनी जाति में खासा प्रभाव है। इसका वे लगातार फायदा भी उठा रहे हैं।

हालांकि जातिगत वोटों का फायदा उठाने वाले अधिकांश दलों ने शायद ही अपनी जाति के लोगों का भला किया हो। यही वजह है कि बड़ी पार्टियां उनके आगे नतमस्तक है। इन पार्टियों के नेताओं का मानना है कि जाति के नाम पर संचालित हो रही राजनीति में चुनाव के दौरान मुद्दे गौण और जाति हाबी हो जाती है।

यह बात छोटे दल भी अच्छी तरह जानते हैं और बड़ी पार्टियों का समर्थन एक तरह से अपनी शर्तों पर करते हैं। फिलहाल दोनों ओर से गठबंधन को मजबूत किया जा रहा है। छोटे दल अपने-अपने गठबंधन को लोकसभा चुनाव में जिताने का दावा भी कर रहे हैं। हालांकि यह देखना दिलचस्प होगा कि आगामी लोकसभा चुनाव में छोटे दलों की जातीय राजनीति चलती है या मुद्दे हावी रहते हैं।

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