संपादक की कलम से :  नोटा पर सवाल

Sandesh Wahak Digital Desk: लोकसभा चुनाव के बीच नोटा यानी किसी भी प्रत्याशी के पक्ष में मतदान नहीं के विकल्प के महत्व पर फिर सवाल खड़ा हो गया है। यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है। याचिका में शीर्ष अदालत से नोटा के विकल्प को अन्य उम्मीदवारों से अधिक वोट मिलने पर चुनाव रद्द करने और नए सिरे से मतदान कराने के लिए नियम बनाने का अनुरोध किया गया है। इस जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से जवाब मांगा है।

सवाल यह है कि :- 

  • चुनाव के दौरान नोटा का महत्व हमेशा से उपेक्षित क्यों रहा?
  • आखिर नोटा के परिणमों को लेकर आज तक कोई व्यवस्था क्यों नहीं की गई?
  • क्या इसका प्रयोग करने वाले वोटरों का कोई महत्व नहीं है?
  • चुनाव के दौरान नोटा का इस्तेमाल क्यों किया जा रहा है?
  • क्या यह महज खानापूर्ति बनकर रह गया है?

लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार चुनने का अधिकार मतदाताओं के पास होता है। भारत में भी इस प्रक्रिया का पालन किया जाता है। चुनाव निष्पक्ष रूप से कराया जा सके इसके लिए भारत में चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था का गठन किया गया है। चुनाव आयोग ही इस पूरी व्यवस्था को संचालित करता है और चुनाव जीतने वाले जन प्रतिनिधियों को प्रमाणपत्र देता है। 2013 से पहले वोटर्स को  केवल प्रत्याशी चुनने का अधिकार था लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह व्यवस्था की गयी कि यदि कोई मतदाता प्रत्याशियों में किसी को पसंद नहीं करता है तो वह नोटा यानी इनमें से कोई नहीं का विकल्प अपना सकता है।

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ चुनाव आयोग से मांगा जवाब

हालांकि इसका चुनाव परिणामों पर कोई खास असर नहीं पड़ता है। प्रत्याशियों की जीत हार उनको मिले वोट के आधार पर तय की जाती है। तब से यह सवाल उठता रहा है कि यदि नोटा का कोई महत्व ही नहीं है तो इसका प्रयोग और विकल्प क्यों दिया गया है। अब यह सवाल सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है। हालांकि शुरुआत में पीठ ने इस याचिका पर विचार करने में उदासीनता दिखाई और साफ किया कि इस पर विचार करने का काम कार्यपालिका का है लेकिन बाद में चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने इस मामले पर चुनाव आयोग से जवाब मांगा।

शीर्ष अदालत के इस कदम से निश्चित तौर पर अब नोटा का कोई न कोई हल अवश्य निकलेगा क्योंकि नोटा का विकल्प चुनने वाले भी हर चुनाव परिणाम के बाद खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं। उन्हें समझ नहीं आता है कि जब प्रत्याशी के चयन प्रक्रिया पर इसका कोई असर ही नहीं पड़ता है तो इसका प्रयोग चुनाव आयोग क्यों कर रहा है। इसमें दो राय नहीं कि इस मामले पर तभी विचार किया जाना चाहिए था जब चुनाव आयोग इसका इस्तेमाल चुनाव के दौरान करने जा रहा था। खैर देर आयद, दुरुस्त आयद। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि चुनाव आयोग नोटा को लेकर क्या रुख अपनाता है। आयोग और सुप्रीम कोर्ट का रुख ही आने वाले दिनों में नोटा का भविष्य तय करेगा।

 

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