संपादक की कलम से:  नफरती भाषण और सुप्रीम कोर्ट

Sandesh Wahak Digital Desk : हरियाणा के नूंह जिले में हुई सांप्रदायिक हिंसा पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को नफरती भाषणों पर नजर रखने और इसे रोकने के लिए एक कमेटी गठित करने का आदेश दिया है। इसके पहले शीर्ष अदालत राज्य सरकारों को ऐसे भाषणों से कड़ाई से निपटने का निर्देश दे चुकी है।

सवाल यह है कि :-

  1. नफरत फैलाने के लिए भड़काऊ बयानबाजी की घटनाएं लगातार क्यों बढ़ रही हैं?
  2. वे कौन लोग है जो देश में अराजकता फैलाना चाहते हैं?
  3. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद केंद्र और राज्य सरकारें इसे लेकर कोई गंभीर पहल क्यों नहीं कर रही हैं?
  4. इस प्रकार के भाषणों और बयानों के पीछे की मानसिकता क्या है?
  5. क्या वोट बैंक की राजनीति भी भड़काऊ बयानों के लिए जिम्मेदार है?
  6. ऐसे मामलों में सरकारें बैक फुट पर क्यों नजर आती हैं?
  7. क्या केवल कमेटी गठित कर देने भर से समस्या का समाधान हो जाएगा?
  8. क्या बिना मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति के नफरती भाषणों पर लगाम लग पाएगी?

पिछले कुछ वर्षों में देश में नफरती और भड़काऊ भाषणों का सिलसिला तेज हुआ है। इस मामले में कई राजनेता भी कठघरे में खड़े हो चुके हैं और उन्हें कोर्ट ने दोषी मानते हुए सजा भी सुनाई है लेकिन इसका कोई असर दिखाई नहीं दे रहा है। हालत यह है कि सोशल मीडिया पर भड़काऊ पोस्ट धड़ाधड़ डाली जा रही हैं। जाति-धर्म के नाम पर अनाप-शनाप शब्दावलियों का इस्तेमाल किया जा रहा है। कई बार सोशल मीडिया में जारी भड़काऊ भाषणों की वजह से कई राज्यों में हिंसा तक हुई है या हिंसा और तेजी से फैली है।

सच यह है कि सत्ता पाने की चाहत के कारण देश के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न करने की कोशिशें आजादी के बाद से ही चल रही हैं। जाति और धर्म के नाम पर नफरत के बीज बोए जा रहे हैं। इसमें सियासी दल सबसे आगे हैं। वे अपने-अपने वोट बैंक को खुश करने के लिए सार्वजनिक मंच से भड़काऊ बयान देने से बाज नहीं आ रहे हैं। चुनाव के दौरान ये स्थितियां और भी विस्फोटक हो जाती हैं।

सियासी दल ऐसे भाषणों को सत्ता तक पहुंचने के लिए सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर रहे

हालांकि चुनाव आयोग इस पर नजर रखता है लेकिन ऐसे नेताओं पर कुछ दिनों तक प्रचार न करने का प्रतिबंध लगाकर वह भी अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेता है। चुनाव के बाद सब कुछ पहले जैसा हो जाता है। हैरानी की बात यह है कि सियासी दल ऐसे भाषणों को सत्ता तक पहुंचने के लिए सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं।

यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद राज्य सरकारें इस पर ध्यान नहीं दे रही हैं। इसका नकारात्मक असर समाज पर पड़ रहा है और हिंसक घटनाएं घट रही हैं। यदि केंद्र और राज्य सरकारें इस पर लगाम लगाना चाहती हैं तो उन्हें मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना होगा। नफरत फैलाने वाले भाषणों पर न केवल रोक लगानी होगी बल्कि संबंधित व्यक्ति के खिलाफ कड़ी कार्रवाई भी करनी होगी अन्यथा स्थितियां निकट भविष्य में और भी भयानक हो सकती हैं।

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