संपादक की कलम से : लंबित मामले और सुप्रीम कोर्ट

Sandesh Wahak Digital Desk : सुप्रीम कोर्ट ने अदालतों में लगताार बढ़ते लंबित मामलों पर न केवल चिंता जताई है बल्कि सुनवाई टालने के तरीकों पर भी सवाल उठाए हैं। कोर्ट ने आदेश दिया है कि सभी प्रकार के लंबित मुकदमों का यथाशीघ्र निस्तारण करने और सुनवाई टालने के तरीके पर रोक लगाने पर मंथन किया जाए।

सवाल यह है कि :

  • क्या सुप्रीम कोर्ट के आदेश का असर अदालतों में लंबित मामलों के निपटारे पर पड़ेगा?
  • क्या पीड़ितों को जल्द न्याय मिल सकेगा?
  • क्या मुकदमों की संख्या में कमी आएगी?
  • क्या अदालतों और जजों की संख्या को बढ़ाए बिना लंबित मामलों का निपटारा हो सकेगा?
  • आजादी के इतने दशकों के बावजूद स्थितियों में कार्य प्रणाली में कोई ठोस बदलाव क्यों नहीं आ सका?
  • तारीख पर तारीख की परंपरा क्या खत्म हो सकेगी?
  • क्या सरकारों की उदासीनता इसकी बड़ी वजह है?
  • क्या न्यायपालिका को सशक्त बनाने के लिए जरूरी कदम उठाए जाएंगे?

देश की अदालतें मुकदमों के बोझ से दबी जा रही हैं। पुराने मामले निपटते नहीं है कि नए मुकदमों की फाइलें तैयार हो जाती हैं। हालत यह है कि आज तकरीबन 4.44 करोड़ मुकदमे अदालतों में चल रहे हैं। इसमें से आठ फीसदी मामले केवल महिला वादियों से संबंधित हैं। अदालतों के आदेश के बावजूद महिला संबंधी अपराधों को छह माह में निपटाने के निर्देश कागजों में दफन होकर रह गए हैं। यही हाल अन्य अपराधों का है। सबसे अधिक मामले राजस्व और भूमि विवादों से जुड़े हुए हैं।

सच यह है कि इसके लिए पूरी व्यवस्था जिम्मेदार

कई मुकदमें तो कई दशकों से चल रहे हैं लेकिन आज तक इनका निपटारा नहीं किया जा सका है। लिहाजा समस्याएं और बढ़ती जा रही हैं। विवादों का निपटरा नहीं होने के कारण इससे संबंधित अन्य प्रकार के अपराध बढ़ रहे हैं। सच यह है कि इसके लिए पूरी व्यवस्था जिम्मेदार है। मुकदमों के सापेक्ष अदालतों की संख्या बेहद कम हैं। यही नहीं तमाम अदालतों में जजों की संख्या बेहद कम है। यह स्थिति शीर्ष अदालत से लेकर हाईकोर्ट तक दिखाई पड़ती है।

खुद सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के तहत न्यायाधीशों की नियुक्ति और तैनाती में देरी को लेकर केंद्र सरकार से अपनी नाराजगी जाहिर कर चुका है। बावजूद इसके सरकार के स्तर पर कोई ठोस कार्रवाई होती नहीं दिख रही है। हालांकि फास्ट ट्रैक अदालतों की शुरुआत की गई है लेकिन इससे केवल नए मुकदमों पर ही कुछ असर पड़ रहा है।

साफ है मानव संसाधन और अदालतों की कमी के कारण ही स्थितियां दिनोंदिन बिगड़ती जा रही हैं और सुप्रीम कोर्ट की यह चिंता जायज है कि लोगों को वक्त पर न्याय नहीं मिल पा रहा है। सरकार को चाहिए कि वह सुप्रीम कोर्ट की चिंताओं का न केवल समाधान करे बल्कि देश भर में अदालत की स्थापना में अपना योगदान करे। कम से कम जनता के सापेक्ष पूरे देश में पर्याप्त अदालतें होनी ही चाहिए अन्यथा लोकतंत्र में समय पर न्याय पाना आम आदमी के लिए बेहद मुश्किल हो जाएगा।

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