संपादक की कलम से : मुफ्त की रेवड़ियों पर सवाल

Sandesh Wahak Digital Desk : सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा चुनाव के कुछ महीने पहले राजस्थान व मध्य प्रदेश सरकार से जनता में मुफ्त की रेवड़ियों बांटने पर चार सप्ताह के भीतर जवाब मांगा है। इसके पहले मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने भी इस पर नजर रखने की बात कही है।

सवाल यह है कि :-

  • सरकारों को मुफ्त की रेवड़ी बांटने की नौबत क्यों आई?
  • सत्ताधारी सियासी दलों को ऐन चुनाव के पहले जनता की सुध क्यों आती है?
  • मुफ्त की वस्तुएं देने के लिए सरकार करदाता का पैसा पानी की तरह क्यों बहाती है?
  • चुनाव आयोग ने आज तक इस पर नियंत्रण लगाने के लिए कोई ठोस पहल क्यों नहीं की?
  • क्यों लोककल्याणकारी योजनाओं और मुफ्त की सौगातों के बीच आज तक अंतर नहीं किया जा सका?
  • क्या मुफ्त की रेवडिय़ों का यह कल्चर देश को आर्थिक दिवालिएपन की ओर नहीं ढकेल देगा?
  • आखिर सत्ता के लिए कर्ज लेकर घी पिलाने की परंपरा पर सियासी दल कब तक चलते रहेंगे?
  • क्या यह अंततोगत्वा राज्य सरकारों और जनता को गर्त में नहीं ले जाएगी?

चुनाव जीतने के लिए सियासी दल आजकल मुफ्त की रेवड़ियों का दांव-पेच खूब चल रहे हैं। हालांकि इसकी शुरुआत दक्षिण भारत से हुई थी लेकिन चुनाव में इसका सबसे अधिक प्रयोग आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने किया। इसका फायदा भी उन्हें मिला। वे लगातार तीन बार दिल्ली में सरकार बना चुके हैं। यही नहीं वे इसी मुफ्त की रेवड़ी के दांव से पंजाब में भी सत्ता तक पहुंचने में कामयाब रहे। चुनाव जीतने के इस शार्टकट का लाभ अब सभी दल उठाने में लगे हैं।

राष्ट्रीय पार्टियां भी खुलकर रेवड़ियां बांटने में जुटी

भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियां भी खुलकर रेवड़ियां बांटने में जुट गई हैं। कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के चुनाव में कांग्रेस को इस फ्री वाली चाल से जबरदस्त सफलता मिली है। लिहाजा अब सभी इस बहती गंगा में हाथ धोने में लगे हुए हैं। अब यह मामला कोर्ट तक पहुंच गया है।

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इसके पहले भी केंद्र और चुनाव आयोग से मुफ्त की रेवड़ियों और जनकल्याणकारी योजनाओं में अंतर साफ करने को कहा था लेकिन इस मामले में अभी तक सुप्रीम कोर्ट को कोई जवाब नहीं दिया गया है। यह स्थिति तब है जब वित्त आयोग बार-बार यह हिदायत दे रहा है कि यदि मुफ्त की रेवडिय़ों की यह परंपरा जारी रही तो राज्यों की आर्थिक स्थिति खस्ता हो जाएगी और कर्ज के बोझ से वह राज्य दिवालिया बन जाएगा। विकास की रफ्तार कम हो जाएगी।

दूसरी ओर मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि इससे लोगों के अंदर काम करने की प्रवृत्ति पर नकारात्मक असर पड़ेगा। इससे देश की आर्थिक रफ्तार धीमी हो जाएगी। जाहिर है चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट को इसके खिलाफ कड़े कदम उठाने होंगे क्योंकि सत्ताधारी दल इस मामले में शायद ही कुछ करें। हालांकि सियासी दलों को इस पर गौर करने की जरूरत है अन्यथा देश की आर्थिक हालत खराब हो गयी तो इसका असर उनके सियासी भविष्य पर भी पड़ेगा।

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