संपादक की कलम से : गठबंधन की सियासत

Sandesh Wahak Digital Desk: लोकसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान होने में महज तीन दिन बाकी हैं लेकिन इंडिया गठबंधन की सियासत अभी तक पटरी पर आती नहीं दिख रही है। एक ओर गठबंधन के साथी दल कई राज्यों में अलग-अलग चुनाव लड़ रहे हैं। तो दूसरी ओर जहां एकजुट हैं। वहां भी सियासी तापमान बढ़ा नहीं पा रहे हैं। संयुक्त रैलियां और सभाएं कायदे से शुरू नहीं हो सकी हैं। हैरानी की बात यह है कि जहां ये अलग-अलग चुनाव लड़ रहे हैं वहां भी फ्रेंडली मैच नहीं खेला जा रहा है। यहां ये दल एक-दूसरे पर तीखे आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं।

सवाल यह है कि :

  • क्या विपक्षी गठबंधन सांगठनिक रूप से बेहद मजूबत और आक्रामक रणनीति के सहारे पूरे देश में ताबड़तोड़ रैलियां और सभाएं करने वाली भाजपा को जवाब दे पाएगा?
  • क्या कहीं साथ और कहीं अलग चुनाव लडऩे का नकारात्मक असर पार्टी के कार्यकर्ताओं पर नहीं पड़ेगा?
  • आज तक विपक्षी गठबंधन के दल अपनी रणनीति और एजेंडा क्यों नहीं सेट कर सके हैं?
  • गठबंधन दलों के बीच विरोधाभासी बयानबाजी क्या समर्थकों में भ्रम की स्थिति नहीं पैदा करेगा?
  • क्या कांग्रेस खुद भी गठबंधन साथियों को साथ लेकर चलने में दिलचस्पी नहीं रख रही है?
  • अलग-अलग चुनाव प्रचार और अपनी ढपली-अपना राग क्या गठबंधन की सियासत को पटरी से उतार चुकी है?

लोकसभा चुनाव साथ लड़ने की कसमें खाकर जिन 26 से अधिक दलों ने  भाजपा को सत्ता से उखाड़ फेंकने के लिए गठबंधन किया, वह चुनाव के पहले ही कमजोर हो चुका है। गठबंधन के सूत्रधार जदयू प्रमुख नीतीश कुमार व तृणमूल  प्रमुख ममता बनर्जी ने इससे खुद को दूर कर लिया है। पश्चिम बंगाल में ममता अकेले चुनाव लड़ रही हैं और वहां कांग्रेस पर तीखा हमला बोल रही हैं।

वायनाड से चुनाव लड़ेंगे राहुल गांधी

वहीं केरल में सीपीआई ने अलग रुख अपना लिया है और कांग्रेस नेता राहुल गांधी के खिलाफ वायनाड सीट से भी पार्टी प्रत्याशी उतार दिया है। आप पंजाब में कांग्रेस से अलग तो दिल्ली में साथ चुनाव लड़ रही है। जिन राज्यों में गठबंधन है वहां भी हालात ठीक नहीं है। गठबंधन दलों की कोई खास रणनीति नहीं दिखाई पड़ रही है। कांग्रेस के शीर्ष नेता और गठबंधन दलों के नेता अपनी अलग-अलग रैलियां कर रहे हैं।

इससे साफ है कि जिन राज्यों में गठबंधन है वहां भी साथी दल अपनी अलग-अलग खिचड़ी पका रहे हैं। इन राज्यों में कांग्रेस, क्षेत्रीय दलों के भरोसे सीट पाने की जुगत में है तो क्षेत्रीय दल अधिक से अधिक सीट जीतकर अपना दावा मजबूत करने के चक्कर में हैं। रणनीति में एकरूपता और एकजुटता के अभाव के कारण इन दलों के कार्यकर्ता भ्रमित है। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि वे साथ हैं या अलग। प्रचार के तरीकों का असर भी इस पर पड़ रहा है। स्पष्टï है कि गठबंधन की यही रणनीति रही तो लोकसभा चुनाव में उसकी डगर और मुश्किल होगी क्योंकि कार्यकर्ताओं का जोश ही पार्टी को आगे ले जाता है।

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