संपादक की कलम से : जातीय जनगणना के निहितार्थ

Sandesh Wahak Digital Desk : बिहार की नीतीश सरकार ने राज्य के जातीय जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक कर दी है। रिपोर्ट के मुताबिक 13 करोड़ की आबादी वाले इस प्रदेश में अन्य पिछड़ा और अत्यंत पिछड़ा वर्ग के लोगों की संख्या सबसे अधिक यानी करीब 63 फीसदी है। वहीं ईसाई, सिख, जैन धर्मावलंबियों की संख्या एक फीसदी से भी कम है। मुस्लिम समुदाय का प्रतिशत करीब 18 फीसदी है।

सवाल यह है कि :-

  • लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नीतीश सरकार को जातीय गणना कराने और आनन-फानन में इसकी रिपोर्ट सार्वजनिक करने की हड़बड़ी क्यों थी?
  • रिपोर्ट को बिना आर्थिक और सामाजिक आंकड़ों के क्यों जारी किया गया?
  • जातीय गणना के इन अहम मानकों को दरकिनार क्यों किया गया?
  • क्या यह रिपोर्ट देश की सियासत और लोकसभा चुनाव पर असर डालेगी?
  • क्या केवल जातियों की संख्या और प्रतिशत जान लेने भर से पिछड़ा और अत्यंत पिछड़ा वर्ग का भला हो जाएगा?
  • क्या बिहार सरकार को यह बताने की जरूरत नहीं है कि इन वर्गों के कितने प्रतिशत लोगों का जीवन स्तर सरकारी योजनाओं के जरिए ऊंचा उठाया गया है?
  • क्या जातीय गणना विशुद्ध रूप से वोटों की फसल काटने का शार्टकट साधन भर है?

सियासी दल भले ही संविधान की दुहाई देते हुए जातिवाद के खात्मे की बात करते हों लेकिन जब चुनाव आते हैं तो वे जाति-धर्म को हवा देने से बाज नहीं आते हैं। जातीय-धार्मिक समीकरणों को ध्यान में रखकर प्रत्याशियों का चयन किया जाता है। यह भी कटु सत्य है कि आजादी से 75 साल बाद भी भारतीय समाज में जातिवादी मानसिकता घटने की बजाए बढ़ी है।

जातियों की गणना करने से सर्वेक्षण के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता

दरअसल, देश के अधिकांश क्षेत्रीय दल किसी न किसी जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं। लिहाजा उनकी पूरी रणनीति अपनी जाति के लोगों को येन-केन-प्रकारेण गोलबंद करने की होती है। अपनी जाति के आधार पर क्षेत्रीय दल अपना वोट बैंक तैयार करते हैं। उन्हें इसका फायदा चुनाव में मिलता भी है। इसमें दो राय नहीं कि जातीय जनगणना से हाशिए पर पड़ी जातियों की सही जानकारी मिलती है। इसके आधार पर सरकार संबंधित समुदायों के लिए योजनाएं बनाने में इसका उपयोग करती है

लेकिन केवल जातियों की गणना करने से सर्वेक्षण के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसके लिए जातियों के आर्थिक-सामाजिक स्तरीकरण को जानना जरूरी होता है। ऐसे में यदि सरकार योजनाएं बनाएगी तो इसका लाभ संबंधित जाति समुदाय के हाशिए पर खड़े लोगों तक नहीं पहुंच पाएगी। ऐसे सर्वेक्षण इसलिए भी कराए जाते हैं कि पता चल सके कि सरकारी उपायों से संबंधित जातियों के कितने फीसदी लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाया जा सका है।

ताजा रिपोर्ट इस मामले में स्पष्ट नहीं है। लिहाजा सवाल उठने लाजिमी है। हालांकि, इसको लेकर देशव्यापी जातीय जनगणना कराने की मांग तेज हो गयी है। जाहिर है, आने वाले लोक सभा चुनाव में यह एक प्रमुख मुद्दा बनेगा।

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