संपादक की कलम से : भ्रामक विज्ञापन और सुप्रीम कोर्ट

Sandesh Wahak Digital Desk: पतंजलि के भ्रामक विज्ञापन मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने न केवल शिकायतकर्ता इंडियन मेडिकल एसोसिएशन बल्कि केंद्र सरकार को भी खरी-खरी सुनाई। साथ ही एफएमसीजी यानी फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स कंपनियों के विज्ञापनों पर भी सवाल उठाए। शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार से भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ पिछले तीन साल में क्या कार्रवाई की गयी, इसकी रिपोर्ट तलब की है।

सवाल यह है कि :

  • कड़े कानूनों के बाद भी उत्पादों को लेकर बाजार में भ्रमित करने वाले विज्ञापनों की बाढ़ क्यों आ गई है?
  • इनके दावों की पुष्टि कौन करता है?
  • क्या कानूनों के पालन में बरती जा रही घोर लापरवाही के कारण हालात बिगड़ गए हैं?
  • क्या लोगों की सेहत से खिलवाड़ करने की छूट किसी को दी जा सकती है?
  • आखिर जनहित के मुद्दों पर बिना कोर्ट के हस्तक्षेप के सरकारें जरूरी कदम क्यों नहीं उठाती हैं?
  • क्या यह धंधा कंपनियों व अधिकारियों की मिलीभगत से चल रहा है?
  • क्या ऐसे विज्ञापन करने वाले लोगों के खिलाफ भी किसी प्रकार की कार्रवाई का प्रावधान किया जाएगा?

पंतजलि के भ्रामक विज्ञापनों को लेकर भले ही योग गुरु रामदेव और आचार्य बालकृष्ण ने सार्वजनिक और कोर्ट में माफी मांग ली हो लेकिन शीर्ष अदालत इस मामले को हल्के में लेने के मूड में नहीं दिख रहा है। कोर्ट ने इस केस का दायरा और बढ़ा दिया है। अदालत ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लाइसेंसिंग अधिकारियों को इस मामले में पक्षकार बनाने का आदेश दिया है। साथ ही ऐसे विज्ञापनों के खिलाफ कार्रवाई रिपोर्ट भी मांगी है।

विज्ञापन का दायरा भी बढ़ा

इसमें दो राय नहीं कि कोर्ट ने यह फैसला व्यापक जनहित में किया है। आज जब हर घर में संचार माध्यमों के जरिए बाजारवाद पहुंच चुका है तो विज्ञापन का दायरा भी बढ़ा है। इन विज्ञापनों के जरिए कंपनियां अपने उत्पादों का प्रचार-प्रसार करती हैं और अपने उत्पाद को लेकर तमाम तरह के दावे करती हैं।

हालांकि ये कंपनियां ये कभी भी स्पष्ट नहीं करती हैं कि वे जो दावे कर रही है उसकी सत्यता की पुष्टि लाइसेंस देने वाली सरकारी संस्था करती है या नहीं। इसमें सबसे आगे एफएमसीजी कंपनियां हैं। दरअसल, विज्ञापन तभी जारी किए जा सकते हैं जब केंद्र व राज्य सरकार की लाइसेंस देने वाली संस्था इसकी मंजूरी दे दे। ऐसा न करने पर ऐसे विज्ञापनों को भ्रामक माना जाता है और इसके खिलाफ लाइसेंसिंग अधिकारी कार्रवाई करते हैं। बावजूद इसके मिलीभगत से यह सबकुछ चल रहा है।

इन भ्रामक विज्ञापनों के प्रभाव में आकर लोग उत्पादों का प्रयोग करते हैं और इसका सीधा असर लोगों की सेहत पर पड़ता है। कोर्ट ने इसी आधार पर इसका दायरा व्यापक किया है। सरकार को चाहिए कि वह जनहित में न केवल अपने लाइसेंस सिस्टम को दुरुस्त करें बल्कि भ्रामक विज्ञापनों और इसको करने वाले दोनों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करे अन्यथा स्थितियां लगातार बिगड़ती जाएंगी।

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