UP : विश्वविद्यालयों की कार्यपरिषद के बुरे हाल का जिम्मेदार कौन ?

विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की बढ़ती निरंकुशता की असल वजह पर चर्चाएं तेज

Sandesh Wahak Digital Desk : उत्तर प्रदेश के तमाम विश्वविद्यालय के कुलपतियों की कार्यप्रणाली आए दिन चर्चा में बनी रहती है। यह चर्चा उत्तर प्रदेश के लोगों के बीच एक बार फिर तब शुरू हुई। जब लखनऊ विश्वविद्यालय की कार्य परिषद के एक सदस्य सौरभ कुमार गुप्ता को करोड़ों की ठगी के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इससे पहले आगरा विश्वविद्यालय, अवध विश्वविद्यालय और एकेटीयू के कुलपति को जिस तरह त्यागपत्र देने पर विवश किया गया वो भी शिक्षा जगत के बीच खूब चर्चित रहा।

वर्तमान में लगभग सभी राज्य विश्वविद्यालयों की कार्यपरिषद पंगु

कानपुर के कुलपति विनय पाठक को जिस तरह से बचाया गया उससे तो पूरे प्रदेश में ही नहीं देश में भी कुलपति पद की प्रतिष्ठा धूमिल हुई है। एकेटीयू प्रो.पीके मिश्रा कुलपति ने तो यहां तक कह दिया था कि हम इस व्यवस्था में काम नहीं कर सकते। गोरखपुर विश्वविद्यालय के कुलपति के खिलाफ तो शिक्षक आए दिन आंदोलनरत रहते हैं। अगर हमें विश्वविद्यालयों के इन हालातों की जड़ में जाना है तो हमें राज्य विश्वविद्यालयों की कार्यपरिषद की वर्तमान स्थिति को समझना होगा। वर्तमान में लगभग सभी राज्य विश्वविद्यालयों की कार्यपरिषद पंगु है।

शिक्षकों का कहना है कि सोची समझी साजिश के तहत ही कार्य परिषद की यह स्थिति की गई है, ताकि कुलपतियों से जो चाहे करवाया जा सके। कार्य परिषद किसी भी राज्य विश्वविद्यालय की सर्वोच्च प्रशासनिक संस्था है। विवि के बारे में अन्तिम निर्णय कार्य परिषद का ही होता है। कार्य परिषद में कुलपति के अलावा 22 अन्य सदस्य होते हैं। इसके सदस्य उस विवि के शिक्षक तथा शैक्षिक प्रतिष्ठा वाले अन्य व्यक्ति  और न्यायाधीश होते हैं।

शिक्षकों का एक ही सवाल है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? 

इसमें चार सदस्य को कुलाधिपति (राज्यपाल)की ओर से नियुक्ति किया जाता हैं। यह सदस्य शिक्षा क्षेत्र से जुड़े शैक्षिक प्रतिष्ठता वाले होते हैं, लेकिन जिस तरह से ठग सौरभ कुमार गुप्ता का नाम लविवि कार्य परिषद के सदस्य के रूप में सामने आया है। इसके बाद विवि के शिक्षकों का एक ही सवाल है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है?

शिक्षकों का कहना है कि  कार्य परिषद को नियमों के अनुकूल चलाने में विवि कोर्ट से चुने चार सदस्यों की ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है।विवि के शिक्षक तो कार्य परिषदों की बैठक में खुलकर कुलपति के गलत फैसलों का इसलिए विरोध नहीं कर पाते क्योंकि उनका पूरा कॉरियर कुलपति के हाथ में होता है?

कार्यपरिषदें पूरी तरह से तरीके से कुलपतियों की जेब में

कुलाधिपति कार्यालय की ओर से ऐसे चार सदस्यों की नियुक्ति की जाती है, जो कुलपति के कार्य में बाधा नहीं डाले। उत्तर प्रदेश के किसी भी राज्य विश्वविद्यालय में सभा द्वारा निर्वाचित कार्य परिषद के सदस्य कई वर्षों से नहीं है क्योंकि वह उनका चुनाव ही नहीं करवाया गया। चुनाव करवाने की जिम्मेदारी विश्वविद्यालय के कुलसचिव की होती है। स्पष्ट है कि राज्य विश्वविद्यालयों की कार्यपरिषदें पूरी तरह से तरीके से कुलपतियों की जेब में हैं।

यही वजह है कि कुलपतियों ने विवि अधिनियम और परिनियमावली को ताक पर रख दिया है। कुलपति कार्य परिषद में अपनी मनमर्जी के फैसले कर रहे हैं। परिषद के फैसलों की अखबारों में आए दिन धज्जियां उड़ती रहती हैं। एकेटीयू के कुलपति विनय पाठक सहित कई कुलपति इसके प्रमाण हैं। यहीं हाल लविवि का भी है।

आए दिन कुलपतियों व शिक्षक संघों के बीच होता है टकराव

प्रदेश में लविवि हो या फिर अन्य विश्वविद्यालय सभी जगहों पर कार्य परिषद को कुलपतियों ने अपनी जेबी संस्था बना रखा है। लिहाजा मनमाने फैसले को लेकर कुलपतियों और शिक्षक या शिक्षक संगठनों के बीच टकराव होता है। वे कुलपतियों के खिलाफ आवाज उठाते हैं। आंदोलन करते हैं। लेकिन उनकी सुनी नहीं जाती है। लविवि शिक्षक संघ सहित प्रदेश के अन्य कई शिक्षक संघों  ने कुलाधिपति तथा मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर और मुलाकात कर कार्य परिषद में वि वि कोर्ट से चुुने जाने वाले सदस्यों का चुनाव करने की मांग की थी, पर आज तक कुछ नहीं हुआ है।

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