संपादक की कलम से: उल्फा से समझौता

Sandesh Wahak Digital Desk : केंद्र सरकार की तमाम कोशिशों के बाद यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा)से आखिरकार समझौता हो ही गया। उल्फा ने हिंसा छोड़ने, संगठन को भंग करने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होने पर सहमति जता दी है। इस समझौते को गृहमंत्री अमित शाह ने ऐतिहासिक करार दिया है।

सवाल यह है कि :- 

  • क्या अब असम में शांति स्थापित हो जाएगी?
  • क्यों परेश बरुआ की अध्यक्षता वाले उल्फा का कट्टरपंथी गुट इस समझौते में शामिल नहीं हुआ?
  • क्या उल्फा अब देश और प्रदेश के विकास में अपनी भूमिका निभाएगा?
  • क्या एक बेहतर असम की पृष्ठïभूमि तैयार करने में सरकार सफल हो गई है?
  • क्या सीमावर्ती राज्य में अशांति हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी?
  • क्या संप्रभु असम की मांग दोबारा नहीं सुनाई देगी?
  • क्या उल्फा प्रभावित इलाकों में विकास की बयार बह सकेगी?

उल्फा का गठन 1979 में संप्रभु असम की मांग को लेकर किया गया था। इसने अपनी मांग को पूरा कराने के लिए हिंसा का मार्ग चुना। इसके कारण लंबे समय तक असम हिंसा की आग में जलता रहा। तब से अब तक हुई हिंसक गतिविधियों में करीब दस हजार से अधिक लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। हिंसा के कारण ही केंद्र सरकार ने इस संगठन को प्रतिबंधित कर दिया था और उग्रवाद को समाप्त करने के लिए सेना तक को वहां उतारना पड़ा।

असम को मिलेगा शांति स्थापना का सबसे अधिक फायदा

केंद्र की मोदी सरकार ने उल्फा से वार्ता शुरू की और दोनों पक्ष एक टेबल पर आए। इसका परिणाम यह समझौता है। उल्फा के उदारवादी गुट को भी लगा कि इस हिंसा से किसी का भला नहीं होने वाला है और वे सरकार के साथ मिलकर काम करने को तैयार हो गए। इसमें दो राय नहीं कि यह समझौता बेहद महत्वपूर्ण है। सीमावर्ती राज्य में शांति स्थापना का सबसे अधिक फायदा खुद असम को मिलेगा। यहां विकास की नयी इबारतें लिखी जा सकेंगी।

उल्फा के लोग जब प्रदेश की भलाई में अपना योगदान करेंगे तो निश्चित रूप से राज्य समृद्ध होगा। बावजूद इसके चिंता अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है क्योंकि इस समझौते में चीन-म्यांमा सीमा पर रहने वाले परेश बरुआ की अध्यक्षता वाले उल्फा का कट्टरपंथी गुट शांति समझौते में शामिल नहीं हुआ है। इस गुट को चीन का सहयोग मिलता रहा है। ऐसे में यह गुट सीमावर्ती क्षेत्र में तेजी से सक्रिय हो सकता है। इससे हिंसक गतिविधियों में तेजी आ सकती है।

हालांकि जिस मुख्य उल्फा गुट के साथ सरकार ने शांति समझौता किया है, उसका प्रभाव असम में अधिक है। ऐसे में उम्मीद यही है कि आने वाले दिनों में यहां उग्रवादी गतिविधियों पर लगाम लगेगी और राज्य का भविष्य खून खराबे से मुक्त हो सकेगा। वहीं सरकार को चाहिए कि वह बरुआ गुट को भी वार्ता की टेबुल तक ले आए और उसे भी मुख्यधारा में शामिल करने की कोशिश करे। यदि ऐसा नहीं किया गया तो असम में शायद ही शांति लंबे समय तक कायम रह सके।

Get real time updates directly on you device, subscribe now.