संपादक की कलम से: समिति के भरोसे कुश्ती

Sandesh Wahak Digital Desk : भारतीय ओलंपिक संघ की तीन सदस्यीय तदर्थ समिति ने कुश्ती महासंघ की बागडोर एक बार फिर संभाल ली है। खेल मंत्रालय ने नवनिर्वाचित संघ को मनमाने फैसले लेने और कुश्ती महासंघ के संविधान का उल्लंघन करने के आरोप में पिछले दिनों निलंबित कर दिया था और इसके संचालन की जिम्मेदारी भारतीय ओलंपिक संघ को सौंपी थी। तीन सदस्यीय कमेटी की अध्यक्षता भारतीय वुशु संघ के अध्यक्ष भूपिंदर सिंह बाजवा करेंगे।

इन सारे घटनाक्रमों के बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि :

  • क्या तदर्थ समिति के भरोसे ही कुश्ती को छोड़ दिया जाएगा?
  • कुश्ती महासंघ के चुनाव में पहले ही पारदर्शिता क्यों नहीं अपनायी गई कि उसे निलंबित करने की नौबत आई?
  • क्या कुश्ती महासंघ में वर्चस्व की जंग चल रही है?
  • क्या तदर्थ समिति कुश्ती के साथ न्याय कर सकेगी?
  • विवाद में आने के बाद ही सरकार ने इसका स्थायी समाधान क्यों नहीं निकाला?
  • क्या खेल संघों को खेल से जुड़े लोगों को सौंपने का वक्त आ गया है?
  • क्या खेल संघों में फैली गुटबाजी और सियासी दांव-पेंच को खत्म नहीं किया जाना चाहिए?

भारतीय कुश्ती महासंघ के चुनाव परिणाम आने के साथ ही स्थितियां  बिगडऩे लगी थीं। चुनाव में कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण सिंह के खास संजय सिंह के निर्वाचन का शीर्ष पहलवानों ने न केवल विरोध किया बल्कि कई ने अपने राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर दी। इनमें वे पहलवान भी शामिल हैं जिन्होंने पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण पर महिला पहलवानों के यौन उत्पीडऩ का आरोप लगाया था और इस मामले में उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया है।

सरकार ने पुराना तदर्थ समिति के गठन वाला नुस्खा अपनाया

मामला कोर्ट में चल रहा है। जब यह विवाद शुरू हुआ था तब सरकार ने कुश्ती संघ को निलंबित कर दिया था और तब भी तदर्थ समिति ने कुश्ती संघ के कामकाज को संचालित किया था। साफ है सरकार ने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया और सोचा कि नए चुनाव के बाद सबकुछ ठीक हो जाएगा लेकिन इसके खिलाफ मोर्चा खुलने के बाद सरकार ने एक बार फिर वहीं पुराना तदर्थ समिति के गठन वाला नुस्खा अपनाया।

इससे साफ है कि सरकार समस्या के असली जड़ तक नहीं पहुंच पा रही है या उसका स्थायी समाधान नहीं निकालना चाहती है। जाहिर है इस मामले में कुश्ती संघ और सरकार के बीच रस्साकशी चल रही है और यह स्थिति कुश्ती के लिए ठीक नहीं कही जा सकती है। सरकार को यह समझना चाहिए कि खेलों को आगे बढ़ाने के लिए उसे न केवल सभी खेल संघों से सियासी दखलंदाजी बंद करनी होगी बल्कि इसकी जिम्मेदारी खिलाड़ियों को सौंपी जानी चाहिए।

साथ ही सत्ताधारी दल को खेल संघों को कठपुतली बनाने से भी बचना चाहिए अन्यथा यह खेल और खिलाड़ियों दोनों के हितों को पूरा नहीं कर सकेगा। हालांकि उसे खेल संघों पर नजर रखनी होगी ताकि वे खेल के नैतिक और संवैधानिक मूल्यों को नष्ट करने की कोशिश न कर सकें और संघ भाई-भतीजावाद का शिकार न हो।

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