होटलबाज़ी का बढ़ता चलन, धीरे-धीरे कम होती जा रही घर की रसोई की रौनक
घर की रसोई पर भारी बाज़ार का स्वाद...
Sandesh Wahak Digital Desk: आधुनिक युग में खानपान की आदतें तेज़ी से बदल रही हैं। हर गली-मोहल्ले में कैफे, रेस्टोरेंट, हुक्का बार, चाय-सूट्टा प्वाइंट और बिरयानी सेंटर जैसी दुकानें खुल चुकी हैं।
लोग अब घर पर खाना पकाने के बजाय बाहर का स्वाद और सुविधा पसंद करने लगे हैं। इसका सीधा असर घर की रसोई की रौनक पर पड़ रहा है, जो धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है।
रसोई: सिर्फ खाना पकाने की जगह नहीं, परिवार की आत्मा है

रसोई किसी भी घर की धड़कन होती है। जहां न सिर्फ भोजन बनता है, बल्कि रिश्तों की गर्माहट भी पनपती है।
यही वह जगह है जो पति-पत्नी के बीच भावनात्मक जुड़ाव को मजबूत करती है और बच्चों में संस्कार और अपनापन भरती है।
घर का बना खाना केवल स्वाद नहीं देता, बल्कि उसमें प्रेम और एकता की ख़ुशबू भी शामिल होती है।
पश्चिमी सभ्यता की राह पर चलने के खतरे

पश्चिमी देशों में जब महिलाओं ने गृहस्थी और रसोई से दूरी बनाई, तो पारिवारिक जीवन बिखर गया। अमेरिका जैसे देशों में आज तलाक़ की दर 50% से अधिक है और लगभग 40% बच्चे अविवाहित माताओं से जन्म ले रहे हैं।
बड़ी संख्या में लोग अकेलेपन और मानसिक तनाव का शिकार हो रहे हैं। यह उदाहरण बताता है कि रसोई से दूरी सिर्फ एक घरेलू बदलाव नहीं, बल्कि सामाजिक संतुलन को भी प्रभावित करती है।
भारतीय रसोई: परिवार की एकता का प्रतीक

भारत में अब भी कई घर ऐसे हैं जहां रसोई परिवार को जोड़े रखने का माध्यम बनी हुई है। जब पति को यह एहसास होता है कि घर पर उसकी पत्नी और बच्चे उसका इंतज़ार कर रहे हैं, तो वह जल्दी घर लौटने की चाह रखता है।
पत्नी भी यह सोचकर रसोई में मेहनत करती है कि थका हुआ पति स्वादिष्ट भोजन खाकर मुस्कुराएगा। यही भावनात्मक जुड़ाव घर को ‘घर’ बनाए रखता है।
समाज को लौटना होगा रसोई की ओर

आज जरूरत है कि हम फिर से अपनी रसोई की ओर लौटें। यह सिर्फ एक परंपरा नहीं, बल्कि सामाजिक स्थिरता, नैतिकता और प्रेम की नींव है।
घर की रसोई की महक ही परिवारों को जोड़ती है और समाज को मानवीय बनाती है। अगर हमने इसे खो दिया, तो शायद घर का असली अर्थ भी खो देंगे।
लेखक: मंज़ूम आक़िब (लखनऊ)
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