संपादक की कलम से : एक राष्ट्र, एक चुनाव का सवाल

Sandesh Wahak Digital Desk : केंद्र सरकार ने देश में एक राष्ट्र, एक चुनाव की ओर अपने कदम बढ़ा दिए हैं। इस पर विचार-विमर्श के लिए न केवल आठ सदस्यीय हाई लेवल कमेटी का गठन कर दिया है बल्कि इसकी अध्यक्षता पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को सौंप दी है। साथ ही कमेटी से जल्द से जल्द रिपोर्ट मांगी गई है। हालांकि कई सियासी दल इसका विरोध कर रहे हैं।

सवाल यह है कि :-

  1. लोक सभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने को लेकर दलों में मतभेद क्यों है?
  2. क्या देश में पहली बार ऐसा करने की कोशिश की जा रही है?
  3. क्या हर समय देश का चुनाव मोड पर रहना विकास की रफ्तार को कम नहीं करता है?
  4. क्या एक साथ चुनाव कराने से हजारों करोड़ की बचत होगी?
  5. लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले इस मुद्दे पर चिंतन की जरूरत क्यों पड़ी?
  6. क्या सियासी स्वार्थ इसके विरोध का मुख्य कारण है?

2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद एक राष्ट्र, एक चुनाव का मुद्दा उठाया गया था। पीएम नरेंद्र मोदी ने लोकसभा व राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की वकालत की। तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी इसका समर्थन किया था। हालांकि इसके बाद इस पर न तो संसद में बहस की गयी न ही विचार-विमर्श के लिए कोई कमेटी ही गठित की गई। बात आई-गई हो गई लेकिन जब लोकसभा चुनाव के कुछ महीने शेष हैं तब मोदी सरकार ने एक राष्ट्र, एक चुनाव पर विचार-विमर्श के लिए कमेटी का गठन कर दिया। इसके साथ ही सियासी पारा गर्म हो गया है।

विपक्ष इसे बीजेपी सरकार की सियासी चाल बता रहा

विपक्षी गठबंधन इसे लेकर अपना विरोध जता रहा है और इसे भाजपा सरकार की सियासी चाल करार दे रहा है। हालांकि गठबंधन से इतर उड़ीसा की बीजद और आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस पार्टी इसके समर्थन में है। साफ है विपक्षी दल भी पूरी तरह इसका विरोध नहीं कर रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि पहली बार लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की बात हो रही है।

इसके पहले भारत में 1951-52, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हो चुके हैं। सच यह है कि यदि चुनाव एक साथ होते हैं तो इससे न केवल अरबों रुपये की बचत होगी बल्कि इससे विकास कार्यों को रफ्तार मिलेगी। इसका सीधा फायदा आम जनता को होगा। यह सोचना कि यदि एक साथ चुनाव हुए थे राज्य विधानसभाओं और लोकसभा में जनता किसी एक पार्टी को अपना मत देगी, निराधार है।

देश की जनता अपनी राजनीति सूझ-बूझ का परिचय कई बार दे चुकी है। वह राज्य और लोकसभा के चुनाव के दौरान अपनी अलग-अलग पसंद जाहिर कर चुकी है। वहीं सरकार को चाहिए था कि वह इस तरह का फैसला लेने के पहले विपक्ष को विश्वास में लेती। आपसी संवाद का माहौल बनाती। विपक्ष को भी चाहिए कि वह देश और जनता के हितों को ध्यान में रखे। निहित सियासी स्वार्थों के वशीभूत होकर केवल विरोध के लिए विरोध करना विपक्ष को अप्रसांगिक बना सकता है।

Also Read : संपादक की कलम से: सौर मिशन के मायने

Get real time updates directly on you device, subscribe now.