संपादकीय: महंगे चुनाव, हाशिए पर नागरिक

लोकतंत्र में संपूर्ण शक्तियां जनता में निहित होती हैं। इसकी सर्वमान्य परिभाषा है जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन।

संदेशवाहक डिजिटल डेस्क। लोकतंत्र (Democracy) में संपूर्ण शक्तियां जनता में निहित होती हैं। इसकी सर्वमान्य परिभाषा है जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन। भारतीय संविधान में भी इस सिद्धांत को स्वीकार किया गया है। इसकी प्रस्तावना में साफ कहा गया है कि हम भारत के लोग इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। जाहिर है, हम भारत के लोग का अर्थ आम जनता से है, बावजूद इसके चुनावों में आम नागरिक की भागीदारी केवल वोट देने तक सीमित रह गयी है। सामान्य व्यक्ति सरकार में भागीदारी के लिए जरूरी चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने के बारे में सपने में भी नहीं सोच सकता है। इसकी बड़ी वजह चुनाव खर्च (election expenses) का लगातार महंगा होते जाना है।

सवाल यह है कि…

  • क्या लोकतंत्र में इस स्थिति को आदर्श कहा जा सकता है?
  • क्या महंगे चुनावों ने आम नागरिक की सरकार में सीधी भागीदारी के द्वार पूरी तरह बंद नहीं कर दिए हैं?
  • क्या चुनाव में करोड़ों रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति यथार्थ में गरीबों और वंचितों की आवाज बन सकता है?
  • क्या पूंजीपतियों से करोड़ों रुपये चंदा लेने वाले दल उनका हित नहीं साधेंगे?
  • क्या महंगे चुनावों ने कुछ दलों तक इसे सीमित नहीं कर दिया है?
  • क्या निर्वाचन आयोग को इस बारे में गंभीरता से चिंतन करने की जरूरत महसूस नहीं हो रही है?
  • क्या आम नागरिक महज वोटर बनकर नहीं रह गया है?

महंगे चुनाव का कोई भी दल नहीं करता विरोध

चुनाव में भले ही अधिकांश सियासी दल आम जनता की बात मंचों से करते नहीं अघाते हो लेकिन उनके एजेंडे में सरकार में आम आदमी की सीधी भागीदारी कहीं नहीं दिखती है। यही वजह है कि चुनाव खर्च बढऩे का शायद ही किसी दल ने कभी विरोध किया।

नगरीय निकाय चुनावों में भी बढ़ी खर्च सीमा

पिछले साल चुनाव आयोग ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव के प्रत्याशी के लिए खर्च सीमा बढ़ा दी है। इसके तहत बड़े राज्यों में लोकसभा प्रत्याशी 95 जबकि छोटे राज्यों में 75 लाख खर्च कर सकता है। यह सीमा पूर्व में क्रमश: 70 से 54 लाख के बीच थी। वहीं बड़े राज्यों के विधानसभा प्रत्याशी की खर्च सीमा 28 से बढ़ाकर 40 लाख और छोटे राज्यों में इसे 20 से बढ़ाकर 28 लाख कर दिया गया। नगरीय निकाय चुनावों में भी खर्च सीमा बढ़ा दी गई है। मसलन, महापौर पद के प्रत्याशी की खर्च सीमा 20 से बढ़ाकर 35 लाख जबकि नगरपालिका परिषद अध्यक्ष की नौ से 12 लाख कर दी गयी है। हालांकि प्रत्याशी इस खर्च सीमा से कहीं अधिक चुनाव के दौरान खर्च करते हैं।

आम आदमी की भागीदारी से दूर महंगे चुनाव

साफ है, आम आदमी नगर से लेकर केंद्र तक की सरकार में सीधी भागीदारी नहीं कर सकता क्योंकि उनके पास इतना पैसा ही नहीं है। यह स्थितियां संविधान के मूल सिद्धांत यानी सभी को चुनाव लडऩे का अधिकार है, का अप्रत्यक्ष रूप से उल्लंघन करती हैं। महंगा चुनाव कहीं न कहीं अप्रत्यक्ष रूप से भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा देता है। महंगे होते चुनाव पर आयोग को गौर करना चाहिए ताकि सामान्य नागरिक भी इसमें भागीदारी कर सके।

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