‘सुबह-ए-बनारस में डूबा हूं, शाम-ए-अवध में उग आया’


Sandesh Wahak Digital Desk: हैना उलट बांसी। लेकिन सोचिए कि जिस कबीर को दुनिया की रीति उल्टी पल्टी लगती थी उनकी अंतिम ख्वाहिश थी प्रेम। जिसके लिए वह हिंदू मुसलमान सबसे लड़ते रहे और आम अवाम के ऐसे मुंतजि़र हो गए कि लोगों को हर दिन लगता था कि वे कुछ नया बोलेंगे। वही प्रेम, मोहब्बत जिसकी शमां मीर तकी मीर ने भी लखनऊ में कभी रोशन की थी। उसके भी पहले मिर्जा हादी रुसवा इसी ज्योति को उमराव जान अदा के बहाने देश और समाज दोनों को समर्पित कर चुके थे। तभी तो एक वजह बनी कि मुस्कुराइए कि आप लखनऊ में हैं। मुस्कुराते हम बनारस में भी हैं।
इन दोनों शहरों का रिश्ता कई मायनो में बहुवचन को एक करता हुआ सा है। एक में अदब की चासनी है तो दूसरे में ठेठ ढंग से व्यक्त की गई मोहब्बत की महजबीनी। साझा सोच में दोनों में ही मुस्कुराने की वजह है। इसलिए आप बनारस और लखनऊ दोनों में मुस्कुराइए। हम आपको टोक रहे हैं क्योंकि आप ऐसा करना भूल गए हैं। आपने मंजर बदल दिए हैं। कभी मस्ती में थिरकने वाले पांव अब ठोकर मारते हैं।
बनारस में चना चबैना की फकीरियत लखनऊ में पकवानों की लज्जत। दोनों पर संवाद करिए तो अर्थ एक ही निकलेगा। यानी प्यार के दो बोल। गौर फरमाइए कि हम और आप इस अर्थ को अनदेखा कर कहां फंस गए हैं। मार-काट, तू-तू मैं-मैं। छोडि़ए यह सब। प्यार कीजिए, इश्क फरमाइए फिर देखिए जिंदगी क्या खूबसूरत शै है। जिंदगी का हर मरहला यकीनन मोहब्बत और इश्क से ही गुजरता है।
जी में क्या-क्या है अपने ए हमदम, पर सुखन ताब-ए-लब नहीं आता,दूर बैठा गुबार-ए-मीर उससे, इश्क बिन ए अदम नहीं आता।
यहां इश्क कोई जाती मामला नहीं। बल्कि एक सामूहिक जज्बात है। जिसको कबीर थोड़ा और पहले सभी को पढ़ाते हुए मिल जाएंगे। वह है ‘ढाई आखर प्रेम’ का। तो फिर क्यों न मुस्कुराएं आप। अपने रुलाने वालों के सामने और भी मुस्कुराइए। जब शिव कैलाश से चलकर काशी आए तो वे पूरे रास्ते भर हंसते मुस्कुराते खुशियां मनाते हुए आए थे। रास्ते में जो मिला उनको प्रशिक्षित भी किया और आकर बनारस में अपना त्रिशूल गाड़ दिया। उन्होंने पूरी मानवता को मुस्कुराने की एक वजह दे दी।
सुबह-ए-बनारस में जब हम डूबने की बात करते हैं तो वस्तुत: उसी मुस्कुराहट में डूब जाने का सलीका भी सीखते हैं। और एक नई खिलखिलाहट के साथ शाम-ए- अवध में उगते हैं। विचार जरूर कीजिए कि इस मुस्कुराहट को ग्रहण किसने लगाया। हादी मिर्जा रुसवा तब के जमाने की बात करते हैं जब गोरे हमें हर तरह से बांटने में मशगूल थे। लेकिन उन्होंने कहा कि मोहब्बत हम सबके लिए एक पैगाम है। जिसकी तासीर महसूस करने में यदि हम चूके तो मुस्कुराने की वजह जाती रहेगी। हिंदी के उद्गाता भारतेंदु हरिश्चंद्र काशी में कहा करते थे कि हम सब लुटा देंगे लेकिन इश्क करना नहीं छोड़ेंगे। मोहब्बत नहीं छोड़ेंगे। लोग बाग भी इसका अर्थ समझते थे।
अंग्रेजों के लड़ने और लड़ाने की फितरत थोड़ी कमतर हो जाती थी। चलो फिर से मुस्कुराते हैं। अपनों की गली हो या गैर का कूचा। करके तो देखिए कि मुस्कुराहट क्या चीज है। वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स हर साल बनाया जाता है हमारी खुशी का स्तर गिरकर पिछले एक दशक में 10 पायदान नीचे लुढ़क गया है। हो सकता है कि यह आंकड़ा बनाने में किसी तरह का कोई ट्विस्ट हो। लेकिन साहब आप जरा अपने दिल पर हाथ रखकर सोचिए कि कितनी बार मुस्कुराते हैं और दिन में कितनी मर्तबा हंसते हैं। हमारी मुस्कुराहट छीन कर जो फर्श-ए- मखमल पर सियासत में मशगूल हैं। उन्हें जवाब दीजिए।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)