संपादकीय : नफरती भाषण पर ‘सुप्रीम’ आदेश के मायने

Sandesh Wahak Digital Desk : देश में तेजी से बढ़ते भड़काऊ व नफरती भाषणों ने सुप्रीम कोर्ट की चिंताएं बढ़ा दी हैं। यही वजह है कि शीर्ष अदालत अब इस पर अंकुश लगाने में किसी प्रकार की कोताही बरतने के मूड में नहीं दिख रहा है। उसने केंद्र शासित व अन्य राज्य सरकारों को सीधा आदेश दिया है।

कोर्ट ने कहा है कि शिकायत नहीं होने के बावजूद राज्य सरकारें समाज में नफरत फैलाने वाले लोगों पर मुकदमा दर्ज करें। साथ ही यह चेतावनी भी दी है कि इसमें देरी करने वाले राज्यों को अदालत की अवमानना का सामना करना पड़ेगा।

सवाल यह है कि :- 

  1. कोर्ट को इस तरह का कड़ा आदेश क्यों देना पड़ा?
  2. क्या चुनाव आयोग और राज्य सरकारें नफरत फैलाने वाले भाषणों पर अंकुश लगाने में नाकाम रहीं?
  3. क्या वोट बैंक को खुश करने के लिए ऐसे भाषणों का प्रयोग चुनावी सभाओं में किए जाते हैं?
  4. क्या देश के धार्मिक-सामाजिक ताने-बाने को सुनियोजित ढंग से तोड़ने का काम किया जा रहा है?
  5. क्या सरकारें, चुनाव आयोग और सियासी दल सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन करेंगे?
  6. क्या भाई-चारे को तोड़ने की कोशिश करने वालों को दरकिनार किए बिना हालात को सुधारा जा सकेगा?

देश में पिछले कुछ सालों से नफरत फैलाने वाले भाषणों का जमकर प्रयोग किया जा रहा है। चुनाव के दौरान इसकी आवृत्ति तेज हो जाती है। सोशल मीडिया से लेकर सार्वजनिक सभाओं तक में ऐसे भाषण नजर आते हैं। भारतीय समाज पर इसका नकारात्मक असर पड़ रहा है। हकीकत यह है कि ऐसा सोच-समझकर किया जा रहा है।

भड़काऊ बयानबाजी के जरिए वोटरों को खुश करने की कोशिश

नेता भड़काऊ बयानों के जरिए अपने कोर वोटरों को खुश करने की कोशिश करते हैं। वे लोगों को भावनात्मक रूप से उकसा कर वोटों की फसल काटने में जुटे रहते हैं। ये भाषण सांप्रदायिक से लेकर जातिवादी तक होते हैं। हैरानी की बात यह है कि इसमें उन दलों के नेता भी शामिल हैं जो मंच से भाईचारे की बात करते हैं।

इन भाषणों के चलते कई गंभीर व जघन्य घटनाएं और व्यापक हिंसा भी देश में हो चुकी है। यह स्थितियां निश्चित रूप से एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश के लिए घातक हैं। इतना सब-कुछ होने के बावजूद न तो चुनाव आयोग न ही राज्य सरकारें इसको लेकर गंभीर दिखाई पड़ रही हैं। जहां तक चुनाव आयोग का सवाल है, वह ऐसा भाषण देने वाले को कुछ दिनों के लिए चुनाव प्रचार में शामिल न होने का प्रतिबंध लगाकर अपना पल्ला झाड़ लेता है।

चुनाव आयोग और राज्य सरकारों को बरतनी होगी सख्ती

चूंकि इस मामले में कोई कड़ी कार्रवाई नहीं की जाती है, इसलिए नेतागण भी इसे हल्के में लेते हैं और भड़काऊ बयानबाजी करने से गुरेज नहीं करते हैं। सोशल मीडिया पर डाले गए भड़काऊ पोस्ट पर भी कार्रवाई न के बराबर होती है। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा। जाहिर है कि यदि समाज के भाईचारे को बचाए रखना है तो चुनाव आयोग और राज्य सरकारों को इस मामले में सख्ती बरतनी होगी और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन सुनिश्चित करना होगा।

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