संपादक की कलम से: किस ओर जा रहा समाज?

Sandesh Wahak Digital Desk: जैसे-जैसे देश आर्थिक वृद्धि की ओर बढ़ रहा है वैसे-वैसे समाज की दशा और दिशा भी तेजी से बदल रही है। भौतिकवाद की चकाचौंध व एकाकी परिवारों की संख्या में साल-दर-साल इजाफा हो रहा है। इसका असर समाज पर दिख रहा है। खून के रिश्तों के कत्ल की खबरें आए दिन सुर्खियां बनने लगी है।
सवाल यह है कि :
- इन परिस्थितियों के लिए कौन जिम्मेदार है?
- क्या यह आधुनिक समाज का क्रूर चेहरा है या भौतिकवाद की पराकाष्ठा है?
- क्या आदर्श व संस्कारों अब पुस्तकों तक सीमित रह गए हैं?
- बच्चे खुदकुशी क्यों कर रहे हैं?
- खून के रिश्तों का खून क्यों हो रहा है?
- क्या सरकार को इस गंभीर समस्या पर चिंतन नहीं करना चाहिए?
- आखिर 21वीं सदी में हम कैसा समाज बना रहे हैं?
- क्या समाज और इसके हित चिंतकों को इस पर मंथन करने और इसका समाधान निकालने की जरूरत समझ नहीं आ रही है?
- क्या हम एक निष्ठुर और आपसी सौहार्द और भाईचारे की जगह खुद की खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार हो गए हैं?
पूंजीवाद और इससे उपजे शहरीकरण ने देश के आर्थिक विकास को रफ्तार भले दे दी हो लेकिन धन के असमान वितरण ने समाज में एक प्रकार की कुंठा पैदा कर दी है। आज हर आदमी मिनटों में सभी सुख साधनों को प्राप्त करने को उतावला दिख रहा है। इसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार है और अपनी इच्छापूर्ति में आने वाली बाधा को खत्म करने की ओर बढ़ चला है। इसके लिए चाहे अपनों का खून ही क्यों न बहाना पड़े। समाज में रिश्तों के हो रहे कत्ल के पीछे कई कारण जिम्मेदार है।
एकाकी परिवारों का प्रचलन तेज
दरअसल, समाज में संयुक्त परिवार की प्रणाली खत्म होने की कगार पर है। ये संयुक्त परिवार नाते-रिश्तों को खाद पानी ही नहीं देते थे बल्कि बच्चों को संस्कारित भी करते थे। उनको पारिवार और उसके प्रति उत्तरदायित्व का बोध कराते थे। अब जब एकाकी परिवारों का प्रचलन तेज हो गया है तो रिश्तों की अहमियत भी खत्म हो गई। किशोर वय के बच्चे अपने साथियों को ही सब-कुछ मान बैठे हैं। मां-बाप जिम्मेदारियों की चक्की में इस तरह पिसने लगे है कि उन्हें अपने बच्चों चिंता ही नहीं रही। बच्चों और माता-पिता में संवदहीनता की स्थिति उत्पन्न हो गयी। यही बात अन्य रिश्तों पर भी लागू होती है।
इसका खामियाजा यह हुआ कि इन रिश्तों में आपसी प्रेम की गरमाहट बहुत हद तक खत्म हो चुकी है। बच्चे और मां-बाप की दुनिया सर्वथा अलग-थलग हो चुकी है। वहीं भारतीय आदर्श और मूल्यों का भी तेजी से क्षरण हुआ है। मां-बाप बच्चों को अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का साधन समझने लगे हैं। इससे एक और समस्या पैदा हो गयी है। माता-पिता की महत्वाकांक्षाओं का बोझ संभाल नहीं पाने वाले बच्चे खुदकुशी जैसा कदम उठा रहे हैं। जाहिर है स्थितियां विकट हैं और इसका समाधान खुद समाज को निकालना होगा अन्यथा आने वाली पीढ़ी और भी आत्मकेंद्रित हो जाएगी और इसमें किसी भी रिश्ते की शायद ही कोई जगह बचे।
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