संपादकीय: एकजुटता की सियासी खिचड़ी

संदेशवाहक डिजिटल डेस्क। भाजपा को केंद्र की सत्ता से बाहर करने के लिए विपक्षी एकजुटता का राग फिर तेज हो गया है। कभी भाजपा के सहयोगी रहे बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने विपक्ष को गोलबंद करने का जिम्मा लिया है।

इसी सिलसिले में उन्होंने पिछले दिनों कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी, आप संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मुलाकात की। नीतीश व कांग्रेस अध्यक्ष इस बैठक से काफी उत्साहित दिख रहे हैं और उन्हें लगता है कि आने-वाले दिनों में विपक्षी एकता की उनकी सियासी खिचड़ी जरूर पकेगी और इसका संभावित नेतृत्व कांग्रेस ही करेगी।

सवाल यह है कि :- 

  • क्या राष्ट्रीय नेतृत्व की महत्वाकांक्षा पाले कई क्षेत्रीय दलों के कद्दावर नेता आगामी लोकसभा चुनाव में एक छतरी के नीचे आ सकेंगे?
  • क्या कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता की पटकथा लिखी जा सकेगी?
  • क्या प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल कई दिग्गज राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार कर सकेंगे?
  • क्या नीतीश कुमार का सियासी आभामंडल ऐसा है जो विभिन्न विरोधी विचारधाराओं के दलों को एकजुट कर पाएगा?
  • क्या बिना कॉमन एजेंडा और लक्ष्य के भाजपा के खिलाफ मैदान मारा जा सकेगा?

लोकसभा चुनाव के पहले नीतीश, मोदी विरोध में भले ही विपक्षी दलों को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हों, शुरुआती रुझान उत्साहजनक नहीं दिख रहे हैं। हाल में राष्ट्रीय पार्टी बनी आप के संयोजक केजरीवाल न केवल उत्साहित है बल्कि उनकी राष्ट्रीय राजनीति में आने की महत्वाकांक्षा और बढ़ गयी है। वे पीएम पद की दौड़ में खुद को सबसे आगे रख रहे हैं।

अजित पवार का विपक्ष के उलट ईवीएम पर भरोसा जताना इसी रणनीति हिस्सा

लिहाजा वे नीतीश को गोलमोल जवाब देते दिखे। उन्होंने स्पष्ट तौर पर ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि वे सियासी गोलबंदी में शामिल होंगे। राकांपा प्रमुख शरद पवार ने अडाणी मामले में अपनी सहयोगी कांग्रेस की जेपीसी जांच की मांग को खारिज कर अपना सियासी संदेश दे दिया है। वे भाजपा से करीब होने का रास्ता तलाशते दिख रहे हैं। उनके भतीजे अजित पवार का विपक्ष के उलट ईवीएम पर भरोसा जताना इसी रणनीति हिस्सा माना जा रहा है।

पवार, राहुल को लेकर आश्वस्त नहीं है और नए गठबंधन की तलाश में हैं। तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता जिस तरह विभिन्न दलों के प्रमुखों से मुलाकात कर रही है, उससे साफ है कि नीतीश चाहे जितना जोर लगा लें ममता कांग्रेस विशेषकर राहुल गांधी का नेतृत्व कतई स्वीकार नहीं करने वाली हैं। वे अपनी नयी राह बनाने की कोशिश कर रही हैं।

मानहानि मामले में राहुल को मिली सजा को लेकर कांग्रेस को सहानुभूति की उम्मीद थी, लेकिन वह भी मिलती नहीं दिख रही है। ऐसे में कांग्रेस का प्रभाव अपने सहयोगियों पर पड़ता नहीं दिख रहा है। फिलहाल विपक्ष की एकजुटता की सियासी खिचड़ी पकाने के लिए नीतीश जिस ईंधन की खोज कर रहे हैं, वह मिलता नहीं दिख रहा है। ऐसे में आम चुनाव से पहले कई गठबंधन और मोर्चे दिखें तो कोई आश्चर्य नहीं।

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