UP Politics: मायावती की रीति-नीति से दरकी यूपी में बसपा की जमीन

Sandesh Wahak Digital Desk/Suryakant Tripathi: हाल में प्रयागराज में दलित युवक देवीशंकर की हत्या हुई और आगरा में दलित की बारात पर दबंगों ने हमला किया, मारपीट की। वहीं दलितों की राजनीति करने वाली बसपा प्रमुख मायावती ने महज सोशल मीडिया पर ट्वीट कर सरकार से कार्रवाई की मांग कर अपने सियासी कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। यह कांशीराम की वही बसपा है जो दलितों के अधिकारों के लिए संसद से सड़क तक संघर्ष करती थी और बेहद कम समय में दलितों को यूपी की सियासत में बड़ी और निर्णायक ताकत बना दिया था।

पार्टी ने छोड़ दी कांशीराम की संघर्ष की राजनीति

कांशीराम की इसी दलित, पिछड़ा और मुस्लिम को साथ लेकर चलने की राजनीति का नतीजा रहा कि मायावती प्रदेश में चार बार मुख्यमंत्री रहीं लेकिन दलितों पर हुए अत्याचारों पर जिस तरह की राजनीति मायावती अब कर रही है, उससे लगता है कि वे जमीन की सियासत से कोसों दूर हो चुकी हैं। बड़ा सवाल यह है कि क्या इसी रणनीति के भरोसे वे 2027 के विधानसभा चुनाव में अपने बिखर चुके दलित वोटरों को अपने पाले में खींच पाएंगी? क्या वे सुविधाभोगी और सोशल मीडिया की राजनीति के जरिए प्रदेश की सत्ता के शिखर पर पहुंचने के अपने सपने को साकार कर पाएंगी?

दलित अत्याचारों पर सोशल मीडिया तक सिमटी बसपा प्रमुख

जब से बसपा प्रदेश की सत्ता से दूर हुई है, इसकी सियासत इसके संस्थापक कांशीराम की व्यवहारिक राजनीति से विपरीत दिशा में जाती दिखी। जहां काशीराम ने दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यकों की लड़ाई वामसेफ और डीएस फोर यानी दलित शोषित समाज संघर्ष समिति के जरिए इनके अधिकारों की लड़ाई जमीन पर लड़ी वहीं कांशीराम के बाद यानी बसपा प्रमुख मायावती के नेतृत्व में यह लड़ाई धीमी हुई। इसका खामियाजा खुद बसपा को भुगतना पड़ा।

दलितों पर अत्याचार की बात हो या मुस्लिमों और अति पिछड़ी जातियों के अधिकारों की लड़ाई, बसपा व्यवहारिक राजनीति में अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस, भाजपा और सपा से बहुत पीछे नजर आई। दलितों के प्रति होने वाली तमाम घटनाओं में बसपा प्रमुख ने अपने कार्यकर्ताओं या पदाधिकारियों को सडक़ पर उतरकर लड़ाई लडऩे को शायद ही कभी कहा। खुद मायावती ने पीडि़तों या उनके परिजनों से मुलाकात की शायद ही कभी कोशिश की।

दलितों के हक की लड़ाई सड़क पर लड़ने से परहेज ने कम हुआ कद

दरअसल, मायावती ने मान लिया कि दलित उन्हें छोडक़र नहीं जाएंगे लेकिन अब जब दलित अधिकांशत: भाजपा के पाले और कुछ सपा व कांग्रेस की ओर अपना रुख कर चुके हैं तब भी वे अपनी पुरानी रणनीति बदलती नहीं दिख रही हैं। जाहिर है, आज जो भी दल दलितों के हक और हुकूक की लड़ाई में उनके साथ खड़े हैं, उनको दलितों की सहानुभूति और वोट मिल रहे हैं।

आजाद समाज पार्टी कांशीराम के प्रमुख चंद्रशेखर की जीत इसका ताजा उदाहरण है। मायावती को यह समझ ही नहीं पायी कि सियासत की नदी में बहुत पानी बह चुका है और अब दलित विशेषकर गैरजाटव समाज के लोग वोट बैंक बनकर रहने को तैयार नहीं है। वह उसी के साथ खड़े होंगे जो उसकी हक की लड़ाई कंधे से कंधा मिलाकर लड़ेगा।

 

हालांकि अभी भी जाटव समाज मायावती पर भरोसा जता रहा है लेकिन बड़ा सवाल यह है कि कब तक? यदि दलित, पिछड़ों और मुस्लिमों का संग-साथ पाना है, अपनी सियासी जमीन दोबारा हासिल करनी है तो मायावती और बसपा को सुविधा की राजनीति से परहेज करना होगा अन्यथा वे एक और चुनाव परिणाम के बाद इन जाति के वोटरों को फिर से कोसती नजर आएंगी। जैसा की उन्होंने 2022 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिमों को कोसा था। परिणाम आने के बाद उन्होंने कहा था कि सबसे अधिक मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट देने के बाद भी मुस्लिम समुदाय ने वोट नहीं दिया।

दरकता जनाधार

2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में बसपा को महज एक सीट पर जीत मिली थी। 2017 के विधानसभा चुनाव की तुलना में बसपा का वोट शेयर 22.23 फीसदी से गिरकर 12.88 प्रतिशत हो गया था। 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में बसपा को 19 सीटों पर जीत मिली थी। हैरानी की बात यह है कि बसपा ने जिस राज्य में चार बार सरकार बनाई, उस राज्य में बसपा का प्रदर्शन मौजूदा दौर में अपना दल (एस), ओम प्रकाश राजभर की पार्टी से कम रहा है।

कई दलों से मिल रही चुनौती
दलित वोटरों को अपने पाले में करने के लिए कांग्रेस, भाजपा, सपा और आजाद समाज पार्टी कांशीराम के प्रमुख चंद्रशेखर पूरा जोर लगाए हुए हैं और हर मुद्दे पर सडक़ पर उतरकर संघर्ष कर रही है। वहीं मायावती सिर्फ रैलियों को संबोधित करने तक अपने को सीमित दिखती है। खुद उनकी पार्टी भी संघर्ष की राह पर नहीं दिख रही है। जाहिर है, सिर्फ सोशल मीडिया से बसपा का भला नहीं होगा। इसके लिए खुद मायावती और बसपा के कद्दावर नेताओं को जमीन पर काम करना होगा।

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